Sunday, 26 June 2016

छाया का मौन

क्या टूटा भी है कभी इस व्यथित छाया का मौन?

जाने कब टूटेगा इस मूक छाया का मौन,
प्यासे किरणों के चुम्बन से रूँधी हैं इनकी साँसे,
कंपित हृदय हैं इनके सूखे पत्तों की आहट से,
खोई सी चाहों में घुट कर मूक हुई आहों में,
सुप्त आहों में छुपी वेदना कितनी ये पूछता है कौन?

क्या टूटा भी है कभी इस व्यथित छाया का मौन?

व्यथित प्राण इनके देख मुर्झाए फूलों को,
घुटती हैं साँसें इनकी देख सूूखे बंजर खेतों को,
सूनी आंगन में तब लेकर आती ये ठंढ़ी साँसो को,
रात के मूक क्षण भर भरकर धोती ये आहों को,
सुप्त चाहों में छुपी व्यथा कितनी ये पूछता है कौन?

क्या टूटा भी है कभी इस व्यथित छाया का मौन?

छलकते बादलों से टपकते आँसू मोती के,
मेघ भर लेता बाहों में छाया को अपनी पंखों से,
कह जाते इनके नैन कथा जाने किस बीते जीवन के,
सिहर उठते प्राण उस क्षण व्याकुल छाया के
सुप्त पनाहों में यह व्याकुल कितनी ये पूछता है कौन?

क्या टूटा भी है कभी इस व्यथित छाया का मौन?

11 comments:

  1. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" सोमवार मई 20, 2019 को साझा की गई है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  2. बेहतरीन सृजन आदरणीय
    सादर

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  3. छलकते बादलों से टपकते आँसू मोती के,
    मेघ भर लेता बाहों में छाया को अपनी पंखों से
    बहुत खूब ....

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  4. वाह!!पुरुषोत्तम जी ,बहुत खूबसूरत सृजन ।

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  5. शानदार बिंब शानदार भाव बहुत सुंदर रचना ।

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  6. मौन छाया की व्यथा....
    अद्भुत.... बहुत ही लाजवाब...
    वाह!!!

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    1. आपकी प्रतिक्रिया हेतु आभारी हूँ आदरणीय सुधा देवरानी जी।

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