Showing posts with label छाया. Show all posts
Showing posts with label छाया. Show all posts

Wednesday, 21 July 2021

धुंधलाते राह

धुंधलाते राहों पर, आ न सके तुम,
ओझल थे हम, गुम थे तुम!

वैसे, कौन भला, धुँधली सी राह चला,
जब, उजली सी, किरणों ने छला,
भरोसा, उन धुँधलाते सायों पर क्या!
इक धुंधलाते, काया थे हम,
गुम होती, परछाईं तुम!

तुम से मिलकर, इक उम्मीद जगी थी,
धुंधली राहों पर, आस जगी थी,
पर बोझिल थे पल, होना था ओझल!
धूँध भरे इक, बादल थे हम,
इक भींगी, मौसम तुम!

अब भी पथराई आँखें, तकती हैं राहें,
धुंधलाऐ से पथ में, फैलाए बाहें, 
धुंधला सा इक सपना, बस है अपना!
उन सपनों में, खोए से हम,
और अधूरा, स्वप्न तुम!

धुंधलाते राहों पर, आ न सके तुम,
ओझल थे हम, गुम थे तुम!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday, 8 April 2020

बुनता हूँ परछाईं

बदली सी, है छाई,
चलता-रुकता हूँ, कोशिश करता हूँ!
बुन लूँ, परछाईं!

थोड़े से हैं बादल, शायद, छँट जाएंगे,
रुकते-चलते, इस भ्रम में,
परछाईं से, हम अपनी, मिल पाएंगे,
शायद, वो मिथ्या ही हो!
पर, उसमें, सत्य का भान, जरा तो होगा,
उस परछाईं में,
इक अक्स, मेरा तो होगा!
सो, जगता हूँ, चल पड़ता हूँ!
बुनता हूँ, परछाईं!

बदली सी, है छाई,
चलता-रुकता हूँ, कोशिश करता हूँ!
बुन लूँ, परछाईं!

जीती है, इक चाहत, भ्रम में है राहत,
वो भ्रम है, या कि हम हैं!
बनते-बिखरते से, पलते हैं वो स्वप्न,
शायद, जागी आँखों में!
पर, चंचल पलकों को, रुकना तो होगा,
उस गहराई में,
ये जीवन, मेरा भी होगा!
सो, उठता हूँ, चल पड़ता हूँ!
बुनता हूँ, परछाईं!

बदली सी, है छाई,
चलता-रुकता हूँ, कोशिश करता हूँ!
बुन लूँ, परछाईं!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday, 2 April 2020

कतरा भर

चेहरों को जलाता,
सुलगता सा,
धूप,
और
मुझसे ही,
परे!
कतराता सा,
दूर होता,
कतरा भर, आसमान!

नजरों से,
अब तलक,
ओझल वो गाँव,
दूर भागते,
कतराते से वो छाँव!
और
न रुकने की,
अनथक,
चलने की,
एक, मेरी भी जिद!

पराए ही रही,
वो धूप,
पराया सा,
फसलों से गुजरता,
वो आसमां,
और
पराए से,
कतराते,
कहीं,
दूर जाते, वो साए!

कतरा-कतरा,
बिखरता,
मैं!
छल,
करती रही थी,
रौशनी ही,
राह भर,
यूँ,
कतरा भर,
पल-पल,
कटता रहा, ये सफर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 29 March 2020

तुम न आए

तुम न आए....
बदला न ये मौसम, ना मेरे ये साये!
जो तुम न आए!

इस बार, खिल सका न गुलाब!
न आई, कलियों के चटकने की आवाज,
न बजे, कोपलों के थिरकते साज,
न चली, बसंती सी पवन,
कर गए, जाने पतझड़ कब गमन,
वो काँटे भी मुरझाए!

जो तुम न आए!

रह गई, छुपती-छुपाती चाँदनी!
न आई, शीतल सी, वो दुग्ध मंद रौशनी,
छुप चली, कहीं, तारों की बारात, 
चुप-चुप सी, रही ये रात,
सोने चले, फिर वो, निशाचर सारे, 
खोए रातों के साए!

जो तुम न आए!

चुप-चुप सी, ये क्षितिज जागी!
न जागा सवेरा, ना जागा ये मन बैरागी,
न रिसे, उन रंध्रों से कोई किरण,
ना हुए, कंपित कोई क्षण,
कुछ यूँ गुजरे, ये दिवस के चरण,
उन दियों को जलाए!

जो तुम न आए!

खुल न सके, मौसम के हिजाब!
न आई, कोयलों के कुहुकने की आवाज,
न बजे, पंछियों के चहकते साज,
न सजे, बागों में वो झूले,
खोए से सावन, वो बरसना ही भूले,
सब मन को तरसाए!

बदला न ये मौसम, ना मेरे ये साये!
जो तुम न आए!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 26 June 2016

प्यासी छाया

छाया क्षणिक सी,
वो क्या दे पाएगी गहरी छाँव?

कोरा भ्रम मन का,
कि पा जाऊँ क्षण भर,
उस अल्प छाया में विश्राम,
भ्रमित मन भँवरा सा,
आ पहुँचा है किस गाँव?

छाया खुद तपती सी,
वो क्या दे पाएगी गहरी छाँव?

छाया वो प्यासी सी,
तप्त किरणों में कुचली सी,
झमाझम बूंदों की उसको चाह,
बरसूँ मैं भींगा बादल सा,
ले आऊँ संग उसे अपने गाँव!

छाया लहराई सी,
अब हसती बनकर गहरी छाँव?

छाया का मौन

क्या टूटा भी है कभी इस व्यथित छाया का मौन?

जाने कब टूटेगा इस मूक छाया का मौन,
प्यासे किरणों के चुम्बन से रूँधी हैं इनकी साँसे,
कंपित हृदय हैं इनके सूखे पत्तों की आहट से,
खोई सी चाहों में घुट कर मूक हुई आहों में,
सुप्त आहों में छुपी वेदना कितनी ये पूछता है कौन?

क्या टूटा भी है कभी इस व्यथित छाया का मौन?

व्यथित प्राण इनके देख मुर्झाए फूलों को,
घुटती हैं साँसें इनकी देख सूूखे बंजर खेतों को,
सूनी आंगन में तब लेकर आती ये ठंढ़ी साँसो को,
रात के मूक क्षण भर भरकर धोती ये आहों को,
सुप्त चाहों में छुपी व्यथा कितनी ये पूछता है कौन?

क्या टूटा भी है कभी इस व्यथित छाया का मौन?

छलकते बादलों से टपकते आँसू मोती के,
मेघ भर लेता बाहों में छाया को अपनी पंखों से,
कह जाते इनके नैन कथा जाने किस बीते जीवन के,
सिहर उठते प्राण उस क्षण व्याकुल छाया के
सुप्त पनाहों में यह व्याकुल कितनी ये पूछता है कौन?

क्या टूटा भी है कभी इस व्यथित छाया का मौन?

Friday, 24 June 2016

छाया अल्प सी वो

बुझते दीप की अल्प सी छाया वो,
साथी! उस छाया से मिलना बस सपने की बात.....

प्रतीत होता जिस क्षण है बिल्कुल वो पास,
पंचम स्वर में गाता पुलकित ये मन,
नृत्य भंगिमा करते अस्थिर से दोनों ये नयन,
सुख से भर उठता विह्वल सा ये मन,
लेकिन है इक मृगतृष्णा वो रहता कब है पास....

उड़ते बादल की लघु सी प्रच्छाया वो,
साथी! उस छाया से मिलना बस सपने की बात.....

क्षणिक ही सही जब मिलते हैं उनसे जज्बात,
विपुल कल्पनाओं के तब खुलते द्वार,
पागल से हो जाते तब चितवन के एहसास,
स्मृति में कौंधती है किरणों की बौछार,
लेकिन वो तो है खुश्बु सी बहती सुरभित वात..,,

क्षणिक मेघ की अल्प सी छाया वो,
साथी! उस छाया से मिलना बस सपने की बात..