Sunday, 5 June 2016

बहारें

अपलक देखता ही रहा मैैं और बहारें गुजरती गईं।

खूबसूरत से ये नजारे कलियाँ खिली खिली,
हरे भरे ये बाग सारे पत्तियाँ सब मुस्कुराती मिली,
पंछियों की ये चहचहाहट इन हवाओं में घुली,
झमझमाती बारिशों में, थिरकती रहीं वो बूँदें वहीं,

खोया सा है अब मन मेरा, पलके हमारी हैं खुली।

अपलक बस देखता हूँ मैं इन नजारों को अब,
सोचता हूँ मैं खड़ा शिल्पकार कितना बड़ा है रब,
सौन्दर्य धरा का निखारने को उसने रचाया सब,
मुस्कुराती होंगी ये बहारे, रब मुस्कुराया होगा जब,

गुजरती हैं ये बहारे यहाँ, मेरी नजरों के सामने अब।

ऐ बहारों मुस्कुराओ निहारता बस मैं तुझको रहूँ,
देखकर निराली छटा कल्पना मैं रब की करूँ,
कुछ क्षण मन को मैं थाम लूँ छाँव में बस तेरी रहूँ,
शिल्प की अप्रतिम रचना मैं अपलक निहार लूँ,

बहारें यूँ ही गुजरती रहें, अपलक बस मैं देखता रहूँ।

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