Wednesday, 23 August 2017

कलपता सागर

हैं सब, बस उफनती सी उन लहरों के दीवाने,
पर, कलपते सागर के हृदय की व्यथा शायद कोई ना जाने!

पल-पल विलखती है वो ...
सर पटक-पटक कर तट पर,
शायद कहती है वो....
अपने मन की पीड़ा बार-बार रो रो कर,
लहर नहीं है ये....
है ये अनवरत बहते आँसू के सैलाब,
विवश सा है ये है फिर किन अनुबंधों में बंधकर....

कोई पीड़ दबी है शायद इसकी मन के अन्दर,
शांत गंभीर सा ये दिखता है फिर क्युँ, मन उसका ही जाने?

बोझ हो चुके संबंधों के अनुबंध है ये शायद!
धोए कितने ही कलेश इसने,
सारा का सारा.......
खुद को कर चुका ये खारा,
लेकिन, मानव के कलुषित मन...
धो-धो कर ये हारा!
हैं कण विषाद के, अब भी मानव मन के अन्दर,
रो रो कर यही, बार-बार कहती है शायद ये लहर.....

ठेस इसे हमने भी पहुँचाया है जाने अनजाने!
कंपित सागर के कलपते हृदय की व्यथा शायद कोई ना जाने!

12 comments:

  1. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन  में" आज शुक्रवार 22 जनवरी 2021 को साझा की गई है.........  "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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    1. हृदयतल से आभारी हूँ कि आपने मेरे इस अजीज रचना का मान बढाया। नमन।।

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  2. सुंदर अभिव्यक्ति।

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    1. हृदयतल से आभारी हूँ कि आपने मेरे इस अजीज रचना का मान बढाया। नमन।।

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  3. वाह!पुरुषोत्तम जी ,बहुत खूब!

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    1. हृदयतल से आभारी हूँ कि आपने मेरे इस अजीज रचना का मान बढाया। नमन।।

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    1. हृदयतल से आभारी हूँ कि आपने मेरे इस अजीज रचना का मान बढाया। नमन।।

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    1. हृदयतल से आभारी हूँ कि आपने मेरे इस अजीज रचना का मान बढाया। नमन।।

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  6. गहन एहसास हृदय स्पर्शी सृजन।
    सिर्फ गंगा मैली नहीं होती सिंधु भी खारे कर दिए जाते हैं ।
    बहुत सुंदर।

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    1. हृदयतल से आभारी हूँ कि आपने मेरे इस अजीज रचना का मान बढाया। नमन।।

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