मेरे हृदय के ताल को,
सदा ही भरती रही भावों की नमीं,
भावस्निग्ध करती रही,
संवेदनाओं की भीगी जमीं.....
तप्त हवाएं भी चली,
सख्त शिलाएँ आकर इसपे गिरी,
वेदनाओं से भी बिधी,
मेरे हृदय की नम सी जमीं.....
उठते रहे लहर कई,
कितने ही भँवर घाव देकर गई,
संघात ये सहती रही,
कंपकंपाती हृदय की जमी....
अब नीर नैनों मे लिए,
कलपते प्राणों की आहुति दिए,
प्रतिघात करने चली,
वेदनाओं से बिंधी ये जमीं....
क्यूँ ये संताप में जले,
अकेला ही क्यूँ ये वेदना में रहे,
रक्त के इस भार से,
उद्वेलित है हृदय की जमीं....
सदा ही भरती रही भावों की नमीं,
भावस्निग्ध करती रही,
संवेदनाओं की भीगी जमीं.....
तप्त हवाएं भी चली,
सख्त शिलाएँ आकर इसपे गिरी,
वेदनाओं से भी बिधी,
मेरे हृदय की नम सी जमीं.....
उठते रहे लहर कई,
कितने ही भँवर घाव देकर गई,
संघात ये सहती रही,
कंपकंपाती हृदय की जमी....
अब नीर नैनों मे लिए,
कलपते प्राणों की आहुति दिए,
प्रतिघात करने चली,
वेदनाओं से बिंधी ये जमीं....
क्यूँ ये संताप में जले,
अकेला ही क्यूँ ये वेदना में रहे,
रक्त के इस भार से,
उद्वेलित है हृदय की जमीं....
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक
२९ अप्रैल २०१९ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
आज की प्रस्तुति में मेरी विविध रचनाओं को एक जगह शामिल कर आपने मुझे विस्मित कर दिया है आदरणीया श्वेता जी। मेरे शौकिया लेखन को विशिष्टता प्रदान करने हेतु हृदयतल से आभारी हूँ ।
Deleteबहुत सुंदर प्रस्तुति।
ReplyDeleteहृदयतल से आभार आदरणीय कुसुम जी।
Deleteशब्द धुंधले हैं पढने में कुछ दिक्कत हो रही है।
ReplyDeleteसादर।
शायद अब ठीक लगे। बहुत-बहुत धन्यवाद ।
Deleteशब्दों के रंग को बदल दे..
ReplyDeleteसुंंदर भावाभिव्यक्ति।
हृदयतल से आभार आदरणीय पम्मी जी।
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