Friday, 5 April 2019

चुप्पी

और न अब कहना, कि चुप क्यूँ रहते हो....

मन के कोलाहल, क्या सुन पाओगे?
उठते है जो शोर, कदापि ना सह पाओगे,
बवंडर है, इसमें ही फ़ँस जाओगे!

और न अब कहना, कि चुप क्यूँ रहते हो....

मन के आईने में, अक्श ही देखोगे,
बेदाग सा दामन, कहाँ खुद का पाओगे,
सच का सामना, कैसे कर पाओगे!

और न अब कहना, कि चुप क्यूँ रहते हो....

असह्य सी होती हैं, रातों की चीखें,
अंधियारों में, कौन भला किसी को टोके,
वो चीख, भला कैसे सुन पाओगे!

और न अब कहना, कि चुप क्यूँ रहते हो....

चुप्पी साधे, रहता हूँ मन को बांधे,
कितने गिरह, मन की इस गठरी में डाले,
गाँठें मन की, कैसे छुड़ा पाओगे!

और न अब कहना, कि चुप क्यूँ रहते हो....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

12 comments:

  1. बेहतरीन रचना आदरणीय 🙏

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  2. आपकी लिखी रचना "मित्र मंडली" l में लिंक की गई है। https://rakeshkirachanay.blogspot.com/2019/04/116.html पर आप सादर आमंत्रित हैं ....धन्यवाद!

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    1. बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीय राकेश जी। आभारी हूँ ।

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    1. बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीय अनुराधा जी।

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  4. वाह बहुत सुन्दर ¡
    गहरे एहसास लिए बहुत सुंदर सृजन ।

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  5. बहुत सुन्दर आदरणीय
    सादर

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    1. आदरणीया अनीता जी, हौसला अफजाई के लिए शुक्रिया आभार ।

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