Saturday 26 June 2021

अभिमान

मृदु थे तुम, तो कितने मुखर थे,
मंद थे, तो भी प्रखर थे,
समय के सहतीर पर, वक्त के प्राचीर पर,
बदल चुके हो, इतने तुम क्यूँ?

उठाए शीष इतना, खड़े हो दूर क्यूँ?
कोई झूलती सी, शाख हो, तो झूल जाऊँ,
खुद को तुझ तक, खींच भी लाऊँ,
मगर, कैसे पास आऊँ!

खो चुके हो, वो मूल आकर्षण,
सादगी का, वो बांकपन,
जैसे बेजान हो चले रंग, इन मौसमों संग,
बदल चुके हो, इतने तुम क्यूँ?

तू तो इक खत, मृत्यु, सत्य शाश्वत,
जाने इक दिन किधर, पहुँचाए जीवन रथ,
तेरे ही पद-चिन्हों से, बनेंगे पथ,
लिख, संस्कारों के खत!

शायद, भूले हो, खुद में ही तुम,
मंद सरगम, को भी सुन,
संग-संग, बज उठते हैं जो, तेरे ही धुन पर,
अन्जाने से हो, इतने तुम क्यूँ?

प्रहर के रार पर, सांझ के द्वार पर,
सफलताओं के तिलिस्मी, इस पहाड़ पर,
रख नियंत्रण, उभरते खुमार पर,
इस, खुदी को मार कर!

फूल थे तुम, तो बड़े मुखर थे,
बंद थे, तो भी प्रखर थे,
विहँसते थे खिल कर, हवाओं में घुल कर,
बदल चुके हो, इतने तुम क्यूँ?

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

29 comments:

  1. फूल थे तुम, तो बड़े मुखर थे,
    बंद थे, तो भी प्रखर थे,
    विहँसते थे खिल कर, हवाओं में घुल कर,
    बदल चुके हो, इतने तुम क्यूँ?.... बहुत सुंदर रचना

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  2. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" रविवार 27 जून 2021 को साझा की गयी है.............. पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  3. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (२७-0६-२०२१) को
    'सुनो चाँदनी की धुन'(चर्चा अंक- ४१०८ )
    पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

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  4. मृदु थे तुम, तो कितने मुखर थे,
    मंद थे, तो भी प्रखर थे,
    समय के सहतीर पर, वक्त के प्राचीर पर,
    बदल चुके हो, इतने तुम क्यूँ?

    बहुत सुंदर बहुत कोमल कविता...🙏

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  5. गहन भाव लिए सुंदर भावाभिव्यक्ति !!

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  6. सुंदर अनुभूतियों का सृजन।

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  7. खो चुके हो, वो मूल आकर्षण,
    सादगी का, वो बांकपन,
    जैसे बेजान हो चले रंग, इन मौसमों संग,
    बदल चुके हो, इतने तुम क्यूँ?---बहुत ही खूबसूरत पंक्तियां हैं...वाह

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  8. बहुत सुन्दर सृजन

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  9. संवेदनाओं को समेटे हृदय स्पर्शी सृजन।
    बहुत सुंदर पुरुषोत्तम जी।

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  10. बहुत बहुत ही सुंदर सृजन आदरणीय सर।
    भाव शब्दों में छलक पड़े।
    हार्दिक बधाई आपको ।
    सादर

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  11. तू तो इक खत, मृत्यु, सत्य शाश्वत,
    जाने इक दिन किधर, पहुँचाए जीवन रथ,
    तेरे ही पद-चिन्हों से, बनेंगे पथ,
    लिख, संस्कारों के खत!
    वाह!!!
    बहुत ही सुन्दर, हृदयस्पर्शी सृजन।

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  12. बहुत सुंदर ,भावनाओं का प्रवाह छलक उठा है

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  13. बहुत ही सुन्दर

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  14. कौन कब कहाँ बदल जाए आदरणीय कविवर कोई कह नहीं सकता | आपके मासूम प्रश्न मन को छू गये |
    फूल थे तुम, तो बड़े मुखर थे,
    बंद थे, तो भी प्रखर थे,
    विहँसते थे खिल कर, हवाओं में घुल कर,
    बदल चुके हो, इतने तुम क्यूँ?
    सुंदर अभिव्यक्ति |

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    1. अभिनन्दन व विनम्र आभार आदरणीया रेणु जी।

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