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Saturday, 7 January 2023

कौन विशेष है!

कौन यहां, विशेष है?
सब, बहते वक्त के अवशेष हैं!
कुछ बीत चुके, कुछ बीत रहे,
कुछ शेष है!
कौन यहां, विशेष है?

बस, पथ यह अभिमान भरा,
और, झूले सपनों के,
स्व से, स्वत्व का अवलोकन कौन करे?
सत्य के, अंतहीन विमोचन में,
जाने कितना अशेष है?
कौन यहां, विशेष है?

दलदल, और अंधियारा पथ,
खींच रहे सब, रथ,
ये पग कीचड़ से लथपथ, कैसे गौर करे!
अर्ध-सत्यों की, अन-देखी में,
जाने कितना अशेष है?
कौन यहां, विशेष है?

धूमिल स्वप्न सा, यह जीवन,
हाथों में, कब आए,
ये धूल, किधर उड़ जाए, कैसे ठौर करे!
उस दिग-दिगंत को, पाने में,
जाने कितना अशेष है?
कौन यहां, विशेष है?

कौन यहां, विशेष है?
सब, बहते वक्त के अवशेष हैं!
कुछ बीत चुके, कुछ बीत रहे,
कुछ शेष है!
कौन यहां, विशेष है?

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 26 June 2021

अभिमान

मृदु थे तुम, तो कितने मुखर थे,
मंद थे, तो भी प्रखर थे,
समय के सहतीर पर, वक्त के प्राचीर पर,
बदल चुके हो, इतने तुम क्यूँ?

उठाए शीष इतना, खड़े हो दूर क्यूँ?
कोई झूलती सी, शाख हो, तो झूल जाऊँ,
खुद को तुझ तक, खींच भी लाऊँ,
मगर, कैसे पास आऊँ!

खो चुके हो, वो मूल आकर्षण,
सादगी का, वो बांकपन,
जैसे बेजान हो चले रंग, इन मौसमों संग,
बदल चुके हो, इतने तुम क्यूँ?

तू तो इक खत, मृत्यु, सत्य शाश्वत,
जाने इक दिन किधर, पहुँचाए जीवन रथ,
तेरे ही पद-चिन्हों से, बनेंगे पथ,
लिख, संस्कारों के खत!

शायद, भूले हो, खुद में ही तुम,
मंद सरगम, को भी सुन,
संग-संग, बज उठते हैं जो, तेरे ही धुन पर,
अन्जाने से हो, इतने तुम क्यूँ?

प्रहर के रार पर, सांझ के द्वार पर,
सफलताओं के तिलिस्मी, इस पहाड़ पर,
रख नियंत्रण, उभरते खुमार पर,
इस, खुदी को मार कर!

फूल थे तुम, तो बड़े मुखर थे,
बंद थे, तो भी प्रखर थे,
विहँसते थे खिल कर, हवाओं में घुल कर,
बदल चुके हो, इतने तुम क्यूँ?

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, 28 January 2020

धरोहर - इक चुनौती

ये सिरमौर मेरा, ये अभिमान हैं हमारे,
गर्व हैं इन पर हमें, ये हैं हमारे.... 

वर्षों पुरातन, सभ्यता हमारी,
आठ सौ नहीं, हजारों सदियाँ गुजारी,
नाज मुझे, मेरी संस्कृति पर,
कुचलने चले तुम, मेरे सारे धरोहर,
पर हैं जिन्दा, ये आज भी,
लिए गोद में, तेरी हर निशानी, 
ज़ुल्म की, तेरी हर कहानी,
और संजोये, नैनों में सपने सुनहरे,
कितनी ही, काँटों से गुजरे....

यूँ ही रहेंगे डटे, हमेशा ये सामने तेरे,
भले ये पथ, कंटकों से गुजरे...

जलती राह में, बिखरे अंगारे,
जलते रहे, भटके ना ये कदम हमारे,
विपत्तियों में, अंधेरों ने घेरे,
हर कदम, नए उलझनों के फेरे,
हर युग, चुनौतियों से गुजरे,
मिट ना सकी, संस्कृति हमारी,
जिन्दा है, ये धरोहर हमारी,
गर्व हमको, हैं यही अभिमान मेरे,
हम हर, अभिशाप से उबरे....

हिमगिरी सा, है खड़ा ये सामने तेरे,
भले ये पथ, कंटकों से गुजरे...

मिटाने चले थे, वो जो सभ्यता,
वो लूटेरा! भला क्या हमको लूटता,
कुछ लुटेरे, रह गए हैं देश में,
ये उनके वंशज, बदले से वेश में,
उगलते हैं, अब भी आग वो,
छेड़ जाते हैं, अलग ही राग वो,
जरा गर, लेते है साँस वो,
इक चुनौती, वही अब सामने घेरे,
चल हम, रूप अपना धरें....

ये सिरमौर मेरा, ये अभिमान हैं हमारे,
गर्व हैं इन पर हमें, ये हैं हमारे....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday, 8 January 2020

जलता देश

सुलगाई चिंगारी, जलाया उसने ही देश मेरा!

ये तैमूर, बाबर, चंगेज, अंग्रेज,
लूटे थे, उसने ही देश,
ना फिर से हो, उनका प्रवेश,
हो नाकाम, वो ताकतें,
हों वो, निस्तेज!

संम्प्रभुत्व हैं हम, संम्प्रभुता ही शान मेरा,
रक्षा स्वाभिमान की, करेगा ये संविधान मेरा!

चाहे कौन? घर रहे दुश्मन,
सीमा का, उल्लंघन,
जिन्दा रहे, कोई दुस्साशन,
वो लूटे, अस्मतें देश की,
रहें, खामोश हम!

रहे सलामत देश, अधूरा है अरमान मेरा,
बचे कोई दरवेश, होगा चूर अभिमान मेरा!

जब भी बंद, रही ये आँखें,
टूटी, देश की शाखें,
जले देश-भक्त, उड़ी राखें,
रहे बस, मूरख ही हम,
बंगले ही, झांके!

भड़की फिर चिंगारी, जल उठा देश मेरा,
फिर ये मारामारी, सुलग रहा परिवेश मेरा!

शीत-लहरी, न काम आई,
ना ही, ठंढ़ी पुरवाई,
देते, समरसता की दुहाई,
सुलगते, भावनाओं की,
अंगीठी, सुलगाई!

क्यूँ नेता वो? कदमों में जिनके देश मेरा,
क्यूँ शब्द-वीर वो? क्यूँ है मेरा शब्द अधूरा?

सुलगाई चिंगारी, 
जलाया उसने ही देश मेरा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 29 September 2019

गुजरता वक्त

वक्त है गतिमान, रिक्त है वर्तमान,
वक्त से विलग, बस बचा है ये वियावान,
और है बची, इक मृग-मरीचिका,
सुनसान सा, कोई रेगिस्तान!

रिक्त से हैं लम्हे, सिक्त हैं एहसास,
गुजरता वक्त, छोड़ गया है कुछ मेरे पास!
अंदर जागी है, इक अकुलाहट सी,
जैसे कुछ थम सी गई है साँस!

वो समृद्ध अतीत, ये रिक्त वर्तमान,
खाली से हाथ, पल-पल टूटता अभिमान,
दूर से चिढ़ाता हुआ, वो ही आईना,
था कल तक, जिस पर गुमान!

जाने लगी है दूर, मरुवृक्ष की छाया,
कांति-विहीन, दुर्बल, होने लगी है काया,
सिमटने लगी हैं, धुंधली सी सांझ,
न ही काम आया, ये सरमाया!

सब लगता है, कितना असहज सा,
जैसे अपना ही कुछ, हो चुका पराया सा,
कैद हों चुकी हैं, जैसे कुछ तस्वीरें,
यादों में है बसा, चुनवाया सा!

है असलियत, गुजर जाता है वक्त,
तकती हैं ये हताश आँखें, होकर हतप्रभ,
तलाशती है "क्या कमी है मुझमें",
ढ़ूँढ़ती है, बीता सा वही वक्त!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Sunday, 21 July 2019

मैला मन

मैला ये तन ही क्यूं?
शायद!
ये अभिमानी मन भी हो!

वहम है या इक भ्रम है, हर इक मन,
है श्रेष्ठ वही इक, बाकि सारे हैं धूल-कण,
भूला है, शायद इस भूल-भुलावे में,
ये अभिमानी मन!

माटी के पुतले हम, है माटी का तन,
गुण-अवगुण दोनों, हैं गुंधे माटी के संग,
न जाने, फिर पलता किस भ्रम में,
ये अभिमानी मन!

कर के लाख जतन, साफ किए तन,
दोषी है खुद, पर करता है दोषा-रोपण,
झांके ना, खुद को ही इस दर्पण में,
ये अभिमानी मन!

औरों की गलती पर, हँसता है जग,
भूल करे जब खुद, होता है राग अलग,
न जाने, भटका किस संगत में,
ये अभिमानी मन!

भ्रम में तन ही क्यूं?
शायद!
ये अभिमानी मन भी हो!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Thursday, 31 May 2018

वृथा ये अभिमान

है वृथा का ये अभिमान.....
हैं पल भर के यहाँ, हम सभी मेहमान!

दो घड़ी का बस है ये जीवन,
इधर साँस टूटी, उधर टूटा ये बंधन!
क्यूं है इस सत्य से अन्जान?
है मृदा से बना तू, न कर अभिमान ऐ इन्सान!

है वृथा का ये अभिमान.....

इस माटी से बना ये तन तेरा,
पंचतत्व की, इक ढ़ेर पर है तू खड़ा!
क्यूं फिराक में तू है जुड़ा?
पंचतत्व में ही विलीन होकर, तू पाएगा त्राण!

है वृथा का ये अभिमान.....

मृषा ही मलीन है ये तेरा मन,
वृथा ही विषाद में, है निष्कपट मन,
क्यूं ढ़ो रहा है तू अभिमान?
रम रहा ईश्वर ही सबके मन, तू जरा ये जान!

है वृथा का ये अभिमान.....
हैं पल भर के यहाँ, हम सभी मेहमान!

Sunday, 27 August 2017

भ्रम के शहर

हो न हो! भ्रम के इस शहर में कोई भ्रम मुझे भी हो?

भ्रमित कर रही हो जब हवाएँ शहर की!
दिग्गभ्रमित कर गई हों जब हवाएँ वहम की!
निस्तेज हो चुकी जब ईश्वरीय आभाएँ!
निश्छल सा ये मन फिर कैसे न भरमाए?

हो न हो! भ्रम के इस शहर में कोई भ्रम मुझे भी हो?

प्रहर प्रशस्त हो रही हो जब निस्तेज की!
कुंठित हुई हो जब किरण आभा के सेज की!
भ्रमित हो जब विश्वास की हर दिशाएँ!
सुकोमल सा ये मन फिर कैसे न भरमाए?

हो न हो! भ्रम के इस शहर में कोई भ्रम मुझे भी हो?

अभिमान हो जब ईश्वरीय सीमा लांघने की!
समक्ष ईश के अधिष्ठाता लोक के बन जाने की!
स्वयं को ही कोई ईश्वर का बिंब बताए!
विश्वास करके ये मन फिर कैसे न भरमाए?

हो न हो! भ्रम के इस शहर में कोई भ्रम मुझे भी हो?

Thursday, 11 February 2016

मेरी साधना

गीत मैं वो गा न सका, क्या कभी गा पाऊंगा?

सदियों साधना की उस संगीत की,
अभिमान था मुझको मेरे दृढ़ विश्वास पर,
पर साथ दे न सका मुझको मेरा अटल विश्वास,
असफल रही कठिन साधना मेरी।

गीत मैं वो गा न सका, गीत मैं वो दोहरा न सका।

सुर ही कठिन है इस जीवन संगीत का,
या साधना के योग्य नही बन पाया मै ही शायद,
साधक हूँ मैं पर! निरंतर रत रहूंगा साधना मे,
है मुझको विश्वास लगन पर मेरी।

गीत मैं जो गा न सका, गीत मैं वो फिर दोहराऊंगा!