हौले से, तन को जरा छू कर,
बह चला, एक झौंका, न जाने किधर!रह गया वो, बस इक, एहसास बनकर,
या, बना सहचर, साँस बनकर,
या, चल रहा संग, वो हर कदम पर,
एक झौंका, न जाने किधर!
कल तलक, ऐसा न था कोई एहसास,
पर अब तक, कहाँ कोई पास!
गुम कहीं, वो तोड़कर मेरा विश्वास,
एक झौंका, न जाने किधर!
रोके कब रुकी, वो खुश्बू हो या पवन,
यूं होती जुदा, ज्यूं बूंदों से घन,
मुड़ चला, झंझोरकर शाख के तन,
एक झौंका, न जाने किधर!
शंकाओं से घिरा, हृदय का, हर शिरा,
जाने कहीं झंझावातों में घिरा,
भटकता हो, सुनसान राहों में पड़ा,
एक झौंका, न जाने किधर!
हौले से, तन को जरा छू कर,
बह चला, एक झौंका, न जाने किधर!
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (01-12-2021) को चर्चा मंच "दम है तो चर्चा करा के देखो" (चर्चा अंक-4265) पर भी होगी!
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार करचर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
हार्दिक आभार ....
Deleteप्रेम से लबरेज़ खूबसूरत नज़्म ....
ReplyDeleteशिरा *** नाड़ी या नस
सिरा .... किनारा / छोर ..
हार्दिक आभार ....
Deleteवाह लाजबाव सृजन, भावनाओं से ओत-प्रोत
ReplyDeleteहार्दिक आभार ....
Delete