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Wednesday 1 June 2022

शक


बेशक दुश्मन बड़ा, मन इक शक भरा!

उस मन, पल न सका इक पौधा विश्वास का,
भरोसे का, उग न सका, इक बीज,
शक, बेशक बांझ करे मन को,
डसे, पहले खुद को,
फिर, रह-रह, दे मन को दर्द बड़ा!

बेशक दुश्मन बड़ा, मन इक शक भरा!

उजड़ी, फुलवारी, कितनी ही, मन की क्यारी,
मुरझाए, आशाओं के, वृक्ष सभी,
बिखर चले, मन उप-वन सारे,
सूख चली, वो नदी,
जो सदियों, पर्वत के, शीश चढ़ा!

बेशक दुश्मन बड़ा, मन इक शक भरा!

सशंकित मन, विचरे निर्मूल शंकाओं के वन,
पाले, बर-बस, निरर्थक आशंका,
विराने, पथ पर, घन में घिरा,
ढूंढ़े, अपना ही पग,
अनिर्णय के, उन राहों पर खड़ा!

बेशक दुश्मन बड़ा, मन इक शक भरा!

निर्मल इक संसार, इस, बादल के उस पार,
बहती है, शीतल सी, एक पवन,
शक के बादल, उड़ जाने दे,
मन, जुड़ जाने दे,
टूट न जाए शीशा, विश्वास भरा!

बेशक दुश्मन बड़ा, मन इक शक भरा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 13 February 2022

क्या फिर!

क्या, फिर मिलोगे कहीं!
समय और अनन्त के, उस तरफ ही सही!

कहीं न कहीं,
उम्मीद तो, इक रहेगी बनी,
इक आसरा, टिमटिमाता सा, इक सहारा,
एक संबल,
कि, कोई तो है, उस किनारे!

क्या, फिर मिलोगे कहीं!
समय और अनन्त के, उस तरफ ही सही!

अब जो कहीं,
बिछड़ोगे, तो बिसारोगे तुम,
बंदिशों में, आ भी न पाओगे, चाहकर भी,
रखना याद,
कि, हम हैं खड़े, बांहें पसारे!

क्या, फिर मिलोगे कहीं!
समय और अनन्त के, उस तरफ ही सही!

झूठा ही सही,
आसरा, इक, कम तो नहीं,
टूट जाए, भले कल, कल्पना की इमारत,
पले चाहत,
कि, कोई तो है, मेरे भरोसे!

क्या, फिर मिलोगे कहीं!
समय और अनन्त के, उस तरफ ही सही!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday 30 March 2021

अंतःमुखी

कुछ कहना था उनसे, पर कह ना पाया...

खुद को, सिकतों पर उकेर आया,
पर, नाहक ही, लिखना था,
मन की बातें, सिकतों को, क्या कहना था?
उनको तो, बस उड़ना था,
मन मेरा, अंतःमुखी,
थोड़ा, था दुखी,
भरोसा, उन सिकतों पर कर आया,
खुद, जिनका ना सरमाया!

कुछ कहना था उनसे, पर कह ना पाया...

कुछ अनकही, पुरवैय्यों संग बही,
लेकिन, अलसाई थी पुरवाई,
शायद, पुरवैय्यों को, कुछ उनसे कहना था!
उनको ही, संग बहना था,
मैं, इक मूक-दर्शक,
वहीं रहा खड़ा,
उम्मीदें, उन पुरवैय्यों पर कर आया,
जिसने, खुद ही भरमाया!

कुछ कहना था उनसे, पर कह ना पाया...

मैं तीर खड़ा,लहरों से क्या कहता!
खुद जिसमें, इतनी चंचलता,
अपनी ही धुन, अनसुन जिनको रहना था,
व्यग्र, सागर संग बहना था,
मैं, इक एकाकी सा,
एकाकी ही रहा,
सागर की, उन लहरों को पढ़ आया,
बेचैन, उन्हें भी मैंने पाया!

कुछ कहना था उनसे, पर कह ना पाया...

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday 5 December 2016

प्रत्याशा

बस है उसे इक प्रत्युत्तर की आशा,
लेकिन गहराती रही हर पल उस मन में इक निराशा,
हताश है अब वो मन और हतप्रभ जरा सा...

सुबहो-शाम आती है जब कोई आवाज,
प्रतिध्वनि जब कोई, मन पर दे जाती है दस्तक,
जाग पड़ती है उस मन की सोई सी प्रत्याशा,
चौंक उठता है वो, मन मे लिए इक झूठी सी आशा...

उसे बहुत देर तक, दी थी उसने आवाज,
सूखे थे कंठ हलक तक, रहा पुकारता वो अंत तक,
भौचक्की आँखों से अब निहारता आकाश,
लेकिन छूट चुका है धीरज, टूट चुकी है अब आशा.....

पहुँच ना सकी वो ध्वनी, उन कानों तक,
या थिरकते लब उसके शायद कर न सकी थी बातें,
या रह गई थी अनसुनी उसकी शिकायतें,
लेकिन है उस मन में, अब भी इक अटूट भरोसा....

बस है उसे अब भी, इक प्रत्युत्तर की आशा,
भले गहराती रहे कितनी उस मन में पलती निराशा,
बस है वो मन हताश थोड़ा और हतप्रभ जरा सा...