शुक्र है, चलो, आए तो तुम!
यूं तो, लगता था,
तृण-विहीन सा है, तेरे एहसासों का वन,
बंजर सा मन,
लताएं, उग ही न पाते हों जिन पर,
जमीं ऐसी कोई!
पर, शुक्र है, उग तो आए एहसास,
इस राह में,
इक बहार बन, छाए तो तुम!
शुक्र है, चलो, आए तो तुम!
यूं, बोल पड़ी, सदी,
जग उठी, दफ्न हो चली, कहानियां कई,
संघनित हो बूंदें,
बिखर गईं, ठूंठ हो चली शाख पर,
झूमती पात पर,
बहक उठे, फिर वो सारे जज्बात,
इक एहसास,
या ख्याल बन, छाए तो तुम!
शुक्र है, चलो, आए तो तुम!
यूं दे गया, फिर कोई सदा,
ज्यूं अचानक ही मिला, मंजिलों का पता,
पुकारती, दो बाहें,
यूं, प्रशस्त कर गई, विलुप्त सी राहें,
उभरी, वही नदी,
समेट चली थी जो, सदियां कई,
इस धुंध में,
इक सदा बन, छाए तो तुम!
शुक्र है, चलो, आए तो तुम!
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" बुधवार 20 अगस्त 2025 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
बहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteसुंदर
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