मानव मन की चाह होती असीमित,
ईच्छाएँ पैदा लेती इनमें अपरिमित,
चाहता ये ब्रम्हांड की सीमा छू लेना,
पर हासिल ना कुछ भी हो पाता।
सोचता था बरगद सा विशाल बनूँगा,
दरख्तों सी होगी शख्सियत हमारी,
विशाल कंधों पर होगा युग का जुआ,
पर हासिल ना कुछ भी हो पाता ।
बरगद जिसकी है असंख्य मजबूत बाहें,
शाखाएँ फैली चहुँ दिशा में लिए छाँव घने,
शख्सियत सागर पटल सी लंबी उम्र लिए,
पर हासिल ना कुछ भी हो पाया ।
ढ़लते उम्र के इस पड़ाव पर सोचता,
चंचल पखेरू मन अधीर सा होता जाता,
हाथों से रेत सी फिसलती जाती वक्त,
और हासिल ना कुछ भी कर पाता।
ईश्वर ने दिया है बस ईक जीवन,
सांसें भी दी है बस गिनतियों की,
करनी थी आशाएँ सब पूरी इनमें,
पर हासिल ना कुछ भी हो पाया ।
चाहता हूँ समय ले फिर से करवट,
उलटी दिशा में फिर लौट चले ये,
कर सकुँ शुरुआत पुनः जीवन का,
पर हासिल ना कुछ भी हो पाता ।
समय बलवान महत्ता इसकी तू पहचान,
कर कुछ ऐसा, बरगद से भी हो तू महान,
शख्सियत में तेरे, जड़ जाएं चांद-सितारे,
सागर पटल भी आएँ, छूने चरण तुम्हारे।