जीवन के अनुभवों पर, मेरे मन के उद्घोषित शब्दों की अभिव्यक्ति है - कविता "जीवन कलश"। यूं, जीवन की राहों में, हर पल छूटता जाता है, इक-इक लम्हा। वो फिर न मिलते हैं, कहीं दोबारा ! कभी वो ही, अपना बनाकर, विस्मित कर जाते हैं! चुनता रहता हूँ मैं, उन लम्हों को और संजो रखता हूँ यहाँ! वही लम्हा, फिर कभी सुकून संग जीने को मन करता है, तो ये, अलग ही रंग भर देती हैं, जीवन में। "वैसे, हाथों से बिखरे पल, वापस कब आते हैं! " आइए, महसूस कीजिए, आपकी ही जीवन से जुड़े, कुछ गुजरे हुए पहलुओं को। (सर्वाधिकार सुरक्षित)
Wednesday, 17 February 2021
कैसा भँवर
Wednesday, 8 August 2018
पड़ाव
चलो तय कर चुके, यह भी पड़ाव हम,
अब न जाने, ले जाए कहाँ ये बढते कदम!
भले ही ये फासले, कुछ हो चले हैं कम,
गंतव्य की ओर, जरा बढ़ चले हैं गम,
छोड़ आए है पीछे, यादों के वो घनेरे घन!
डोर रिश्तों के ये, खींचते हैं मेरे कदम,
यूं ही पड़ाव पर, रिश्तों में बंध गये थे हम!
भावनाओं में, थोड़े से बह गए थे हम,
तोड़ूंगा कैसे, ये भावनाओं के बंधन,
उम्र भर खीचेंगे, स्नेह के ये प्यारे से वन!
नये से पड़ाव पर, किसी से जुड़ेंगे हम,
अंजाने से शक्ल में, जब बेगाने से होंगे हम!
बरस ही जाएंगे, यादों के वो घनेरे घन,
कुछ पल भीग लेंगे, उन राहों पे हम,
मुड़-मुड़ के पीछे, यूं ही देखा करेंगे हम!
स्नेह के मोहक पड़ाव, कैसे छोड़ पाएंगे हम?
Saturday, 9 April 2016
इस सफर की मंजिल
कट चुकी आधी सफर, सिर्फ आधी ही बची,
ये किस मुकाम पर ले चली, आज मुझको ये जिन्दगी,
ये सफर है कौन सी, मंजिल है क्यों अंजान सी?
क्या अंधेरा ही मिलेगा, जिन्दगी की मंजिलो पर?
रुक कर सोचता यही है मन, जीवन के इस पड़ाव पर,
हासिल अनुभव हजार, पर मंजिलों से क्युँ बेखबर?
संग ले चलूँ मै कुछ दिए,अंजानी उन मंजिलों पर,
कुछ उजाले भर सकुँ मैं, इक दीप बन के मंजिलों पर,
अंजानी रही है ये सफर, मंजिल न हो अंजानी मगर!
उम्र के इस सफर की, हमसफर मेरी मंजिल वही,
हमसफर की तलाश में, भटकते रहे सारी उम्र युँ हीं,
गुजरुँ इन राहों से मैं, रह जाऊँ यादों में आपकी!
Saturday, 26 December 2015
उम्र के इस पड़ाव पर
मानव मन की चाह होती असीमित,
ईच्छाएँ पैदा लेती इनमें अपरिमित,
चाहता ये ब्रम्हांड की सीमा छू लेना,
पर हासिल ना कुछ भी हो पाता।
सोचता था बरगद सा विशाल बनूँगा,
दरख्तों सी होगी शख्सियत हमारी,
विशाल कंधों पर होगा युग का जुआ,
पर हासिल ना कुछ भी हो पाता ।
बरगद जिसकी है असंख्य मजबूत बाहें,
शाखाएँ फैली चहुँ दिशा में लिए छाँव घने,
शख्सियत सागर पटल सी लंबी उम्र लिए,
पर हासिल ना कुछ भी हो पाया ।
ढ़लते उम्र के इस पड़ाव पर सोचता,
चंचल पखेरू मन अधीर सा होता जाता,
हाथों से रेत सी फिसलती जाती वक्त,
और हासिल ना कुछ भी कर पाता।
ईश्वर ने दिया है बस ईक जीवन,
सांसें भी दी है बस गिनतियों की,
करनी थी आशाएँ सब पूरी इनमें,
पर हासिल ना कुछ भी हो पाया ।
चाहता हूँ समय ले फिर से करवट,
उलटी दिशा में फिर लौट चले ये,
कर सकुँ शुरुआत पुनः जीवन का,
पर हासिल ना कुछ भी हो पाता ।
समय बलवान महत्ता इसकी तू पहचान,
कर कुछ ऐसा, बरगद से भी हो तू महान,
शख्सियत में तेरे, जड़ जाएं चांद-सितारे,
सागर पटल भी आएँ, छूने चरण तुम्हारे।