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Wednesday, 14 September 2016

गुजरी राहें

मिलने आऊॅगा मैं ढलते हुए शाम की चंपई सुबह लेकर...

वो राहें मुड़कर देखती हैं अब राहें मेरी,
जिन राहों से मैं गुजरा था बस दो चार घड़ी,
शायद करने लगी हैं वो राहें मुझसे प्यार,
सुन सकूंगा न मैं उन राहों की सदाएं,
पुकारो न मुझको बार-बार, ए गुजरी सी राहें,

मिलने आऊॅगा मैं ढलते हुए शाम की चंपई सुबह लेकर...

इस कर्मपथ पर मेरी, गुजरेंगी राहें कई,
अपनत्व बाटूंगा उन्हे भी मैं, चंद पल ही सही,
अपने दिल के करने होंगे मुझे टुकड़े हजार,
कर न सकूंगा मैं उन राहों से भी प्यार,
हो सके तो भूल जाना मुझे, ए गुजरी सी राहें,

मिलने आऊॅगा मैं ढलते हुए शाम की चंपई सुबह लेकर...

ए राहें, तू झंकृत न कर मेरे मन के तार,
तू दे न अब सदाएं, बुला न मुझको यूॅ बार-बार,
बाॅध न तू मुझे रिश्तों के इन कच्चे धागों से,
भीगेंगी आॅखें मेरी, तोड़ न पाऊंगा मैं ये बंधन,
बेवश न कर अब मुझको, ए गुजरी सी राहें,

मिलने आऊॅगा मैं ढलते हुए शाम की चंपई सुबह लेकर...