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Wednesday, 17 February 2016

देश की दुर्दशा

चैतन्य चित्त का चंचल चेतक,
हिनहिना रहा आज चित्त के भीतर,
आकुल प्राण आज उस कर्मवीर के ,
सहम रहा देश की विवशता पर।

चेतक है वो जानता कर्म करना,
निष्ठा कर्म की रक्षा में सर्वस्व झौंकना,
सजल हुए नैन आज उस चेतक के,
रो रहा देश की बिखरती दशा पर।

जान न्योछावर की थी उस चेतक ने,
अपनी राणा और मेवाड़ की अधिरक्षा मे,
चैतन्य चित्त चिंतित आज उस चेतक के,
हिनहिनाता देश की दुर्दशा पर।