चाहा था, वो खुला सत्य, देखूँ मैं जाकर!
लेकिन, इस ऊँचाई पर,
कई प्रश्नों ने, आ घेरा है आकर!
अक्सर, अपनी ओर, खींचती है, ऊँचाई,
न जाने, कहाँ से बुन लाई!
ये जाल, भ्रम के...
एकाकी खुद ये, किसी को क्या दे!
अवशेष, अरमानों के, बिखरे हैं यत्र-तत्र,
उकेरे हैं, किसी ने ये प्रपत्र!
दुर्गम सी, ये राहें...
बैरागी खुद ये, किसी को क्या दे!
अवधूत सी, स्वानंद, समाधिस्त, ऊँचाई,
देखी ही कब इसने गहराई,
चेतनाओं, से परे....
विमुख खुद ये, किसी को क्या दे!
चाहा था, वो खुला सत्य, देखूँ मैं जाकर!
लेकिन, इस ऊँचाई पर,
इक शून्य ने, आ घेरा है आकर!
(सर्वाधिकार सुरक्षित)