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Sunday 2 May 2021

ऊँचाई

चाहा था, वो खुला सत्य, देखूँ मैं जाकर!
लेकिन, इस ऊँचाई पर,
कई प्रश्नों ने, आ घेरा है आकर!

अक्सर, अपनी ओर, खींचती है, ऊँचाई,
न जाने, कहाँ से बुन लाई!
ये जाल, भ्रम के...
एकाकी खुद ये, किसी को क्या दे!

अवशेष, अरमानों के, बिखरे हैं यत्र-तत्र,
उकेरे हैं, किसी ने ये प्रपत्र!
दुर्गम सी, ये राहें...
बैरागी खुद ये, किसी को क्या दे!

अवधूत सी, स्वानंद, समाधिस्त, ऊँचाई,
देखी ही कब इसने गहराई,
चेतनाओं, से परे....
विमुख खुद ये, किसी को क्या दे!

चाहा था, वो खुला सत्य, देखूँ मैं जाकर!
लेकिन, इस ऊँचाई पर,
इक शून्य ने, आ घेरा है आकर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday 8 April 2020

बुनता हूँ परछाईं

बदली सी, है छाई,
चलता-रुकता हूँ, कोशिश करता हूँ!
बुन लूँ, परछाईं!

थोड़े से हैं बादल, शायद, छँट जाएंगे,
रुकते-चलते, इस भ्रम में,
परछाईं से, हम अपनी, मिल पाएंगे,
शायद, वो मिथ्या ही हो!
पर, उसमें, सत्य का भान, जरा तो होगा,
उस परछाईं में,
इक अक्स, मेरा तो होगा!
सो, जगता हूँ, चल पड़ता हूँ!
बुनता हूँ, परछाईं!

बदली सी, है छाई,
चलता-रुकता हूँ, कोशिश करता हूँ!
बुन लूँ, परछाईं!

जीती है, इक चाहत, भ्रम में है राहत,
वो भ्रम है, या कि हम हैं!
बनते-बिखरते से, पलते हैं वो स्वप्न,
शायद, जागी आँखों में!
पर, चंचल पलकों को, रुकना तो होगा,
उस गहराई में,
ये जीवन, मेरा भी होगा!
सो, उठता हूँ, चल पड़ता हूँ!
बुनता हूँ, परछाईं!

बदली सी, है छाई,
चलता-रुकता हूँ, कोशिश करता हूँ!
बुन लूँ, परछाईं!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday 29 June 2016

ख्याल

तुम ख्वाबों से निकलकर ख्यालों में गुजरती हो कहीं!

तब रूह को छू जाती हैं बरबस यादें तेरी,
जल उठते है माहताब दिल के अंधियारे में कहीं,
महक उठती है ख्यालों से सूनी सी ये तन्हाई,
मद्धम सुरों में उभरता आलाप एक सुरमई।

तुम ख्वाबों से निकलकर ख्यालों में गुजरती हो कहीं!

मन पूछने लगता है पता खुद से खुद का ही,
भूल सा जाता है ये मन के तुम कहीं हो ही नहीं,
बस इक परछाईं सी हो तुम कोई अक्स नहीं,
गुमसुम सा विकल ये मन मानता ही नहीं।

तुम ख्वाबों से निकलकर ख्यालों में गुजरती हो कहीं!

राख बन कर ही सही उर रहीं हैं यादें तेरी,
गहरा धुआँ सा छा रहा हैं मन के गगन पर मेरी,
क्या मिलोगे मुझे उस क्षितिज के किनारे कहीं,
इस रूह की गहराईयों में तुम छुपे हो कहीं।

तुम ख्वाबों से निकलकर ख्यालों में गुजरती हो कहीं!

Sunday 17 April 2016

मेरे जज्बात

मैं बार-बार सोचता हूँ! मैं क्युँ न बन पाया उस हृदय और मन सा?

विश्वास की डोर हो या अधिकार या कहें कुछ और,
साथ समय के बदल जाते है यहाँ सब कुछ,
रिश्ते भावनाओं के हों, या हो बेनाम, या कुछ और!

एहसास बदल जाते है, कभी अन्जाने से रिश्तों में,
कभी रिश्ते बदल लेते हैं, जज्बातों के एहसास,
हृदय नही वो पत्थर हैं, बदल लेते है जो जज्बात!

कई बार मन सोचता है! एक ईन्सान के हैं कितने रूप ?

कभी भ्रम पैदा करता वो गहरे एहसासों का,
अपनेपन की बदलते मुखौटों में कभी वो मुस्काता,
जज्बातों को सहलाता अपनी मीठी बोली में तोलकर।

रिश्तों को परिभाषित करता अपनी जरूरतों में हर पल,
जज्बातों की गहराई से खेलता सँवारता अपना आनेवाला कल,
बदलते रिश्तों की इस दुनियाँ में, विश्वास ढ़ूढ़ता अपना ठौर।

वो हृदय! स्वरूप कैसा होगा उस हृदय की कोटरी का?
विश्वास की अधूरी धुन पर जो जानता है बखूबी धड़कना,
उसका मन? कैसा स्वरूप होगा उस इन्सान के मन का?

मैं बार-बार सोचता हूँ! मैं क्युँ न बन पाया उस हृदय और मन सा?

Saturday 20 February 2016

आह सिमटती मन में

आह सिमटती मेरी मन की गहराई में रोती सकुचाई!

आह अगर सुन लेगा कोई तो होगी रुशवाई,
यही सोच कर मैं होठों को सी लेता हूँ,
पी जाता हूँ आँसुओं को, मै चुप रह जाता हूँ, 
मन की बात कटोरे मे मन के ही रख लेता हूँ।

आह सिमटती मेरी मन की गहराई में रोती सकुचाई,
व्यथा हृदय की फिर भी, मैं आहों को कह जाता हूँ,
ध्वनि होठों के कंपन की आहों में भर देता हूँ 
चुप रह जाता हूँ मैं, आँखों के आँसू पी लेता हूँ।

आह सिमट जाती फिर मन की गहराई में रोती सकुचाई!

Friday 19 February 2016

ये बेचारा दिल

ये अपना दिल न होता बेचारा,
गर जिन्दगी की राहों मे न आपसे मिला होता,
फलसफे चुन चुन कर रुशवाईयों के,
कागजों पे न आज लिख रहा होता।

ये अपना दिल न होता बेचारा,
गर सादगी पे आपकी ये न मर मिटा होता,
समुन्दर की बार बार उठती लहरों से,
पता आपका न आज पूछ रहा होता।

ये अपना दिल न होता बेचारा,
गर रूह की गहराईयों में न आपको बिठाया होता,
चूर चूर हो चुके इस दिल के हर टुकड़े से,
नाम आपका ही न आ रहा होता।