Saturday 9 January 2016

एक जोगन या विरहन?


एक अधेर औरत!
शायद जोगन या विरहन?
नदी किनारे बैठी वर्षों से,
अपलक देखती धारों के उस पार,
आँखें हैं उसकी पथराई सी,
होंठ सूखे हुए कपड़े चीथड़े से,
पर बाल बिलकुल सँवरे से,
शायद उसे किसी के लौटने का,
अन्तहीन, अनथक इंतजार है।

हजारों आने-जाने वाले,
कई सिर्फ उसे देख गुजर जाते,
पर कोई उसे टोकता नही,
उसके अन्दर छुपे,
मर्म पीड़ा को सुनने समझने की,
शायद किसी को जरूरत नही।

इलाके में नया था मैं,
कुछ दिनों से रोज,
मैं देखता उसकी ओर
और आनेजाने वालों को भी,
अकुलाहट सी होती, कई प्रश्न उठते,
मन के अन्दर, फिर सोचता,
शायद मनुष्य के अन्दर इंसान,
या उसके जज्बात पूर्णतः मर चुके हैं!

इस उधेड़बुन में मैने सोचा,
क्युँ न मैं खुद पूछ लूँ,
उसकी व्यथा, पीड़ा, कहानी?

हिम्मत जुटाई खुद को तैयार किया,
उसके समीप जाकर ठहर गया,
अनायास ही वो मेरी ओर मुड़ी,
उसकी पथराई आँखें चौंध सी गई,
कई भाव एकसाथ उसके
चेहरे पर तैरने लगे थे,
जुबान अवरुद्ध थी उसकी,
सजल हो उठी थी आँखे,
मानो सारी व्यथा उसने कह दी थी,
और मेरी ओर एकटक देखी जा रही थी।

उसका मुख देख मै हतप्रभ था,
मेरी आँखों से आँसू के दो बूँद बह गए,
मेरी संवेदना समझ चुकी थी,
शायद उसके उपर दुखों का
भीषण सैलाब टूटा होगा कभी,
मर्माहत हुए होंगे उसके अरमान,
पर वो तो ज्जबातों को शब्द भी नही दे सकती!

जैसे तैसे अपने मन को काबू में कर,
मैंने उसे एक आश्रम मे छोड़ दिया था,
मैं समझ गया था शायद,
एक जोगन या विरहन ही है वो!
पर उसे थी जरूरत मानवीय संवेदना की!

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