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Friday 26 January 2018

परछाँई

उस तारे को देखना, नजर मैं ही आऊँगा...

मैं आज भले हूँ सामने,
कल शायद ना रह पाऊँगा!
शब्दों के ये तोहफे,
फिर तुझे ना दे पाऊँगा!
दिन ढ़ले इक टीस उठे जब,
उस तारे को देखना, नजर मैं ही आऊँगा...

हूँ बस इक परछाँई मैं,
शब्दों में ही ढ़लता जाऊँगा!
कुरेदुँगा भावों को मै,
मन में ही बसता जाऊँगा!
सांझ ढ़ले ये अश्क गले जब,
उस तारे को देखना, नजर मैं ही आऊँगा...

लिख जाऊँगा गीत कई,
इन नग्मों में ही बस जाऊँगा!
भाव पिरोकर शब्दों में,
अश्कों में बहता जाऊँगा!
मन की महफिल सूनी हो जब,
उस तारे को देखना, नजर मैं ही आऊँगा...

न बाट जोहना तुम मेरा,
कल वापस भी न आ पाऊँगा!
यादों की किताब बन,
"कविता कलश" दे जाऊँगा!
कभी हो जीवन में तन्हाई जब,
उस तारे को देखना, नजर मैं ही आऊँगा...

मैं, आज भले हूँ सामने.......
कल शायद!  ना.... रह पाऊँगा..!
इक कविता "जीवन कलश"....
मैं आँचल में रखता जाऊँगा!
एकाकीपन के अंधेरे हों जब-जब,
उस तारे को देखना, नजर मैं ही आऊँगा...

Sunday 10 April 2016

रात

डराती रही रात, मगर हम गुनगुनाते रहे रात भर!

वो रात के साए,
खामोश गुजरते रहे,
लगी रही बस एक चुप सी,
सन्नाटे मगर गुनगुनाते रहे रात भर।

डराती रही रात, मगर हम गुनगुनाते रहे रात भर!

वो रात टूटी सी,
रात रोती रही रात भर,
काली कफन में लिपटी सी,
झिंगुर मगर गुनगुनाते रहे रात भर।

डराती रही रात, मगर हम गुनगुनाते रहे रात भर!

वो रात गुमसुम सी,
कुछ कह गई थी कानों में,
सुन न पाए सपन में डूबे हम,
तारे मगर गुनगुनाते रहे रात भर।

डराती रही रात, मगर हम गुनगुनाते रहे रात भर!

वो रात खोई-खोई सी,
जाने किन उलझनों में फसी सी,
बरसती रही ओस बन के गुलाब पर,
कलियाँ मगर गुनगुनाती रही रात भर।

डराती रही रात, मगर हम गुनगुनाते रहे रात भर!

वो रात विरहन सी,
मिल न पाई कभी भोर से,
रही दूर ही उजालों के किरण से,
दीपक मगर गुनगुनाती रही रात भर।

डराती रही रात, मगर हम गुनगुनाते रहे रात भर!