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Saturday, 24 June 2023

जीत

मन में लिए, कई उलझन,
पहली बार, विदा हो आई जब मेरे आंगन,
शंकाओं भरा, 
था बड़ा ही, वो तेरा मन!

पर, कहीं, थी इक लगन,
मध्य उलझनों के, विहँसता रहा तेरा मन,
उम्मीदों भरा, 
था बड़ा ही, वो तेरा मन!

झौंक जाते, तप्त पवन,
चौंक जाते हर आहटों पर, तेरे हृदयांगन,
ममत्व भरा, 
था बड़ा ही, वो तेरा मन!

बिता चुके, इक जीवन,
हर वक्त, संग मेरे इसी देहरी इसी आंगन,
निस्वार्थ सा,
स्वत्व से परे, तेरा मन!

जाने कब हारा ये मन,
तेरे ही नैनों की गलियों में, बेचारा ये मन,
मैं हैरान सा,
छू लूं, प्यारा तेरा मन!

तुम बिन सूना जीवन,
अब तुम बिन, राहों में कितने हैं उलझन,
सब मैं हारा,
जीत चला, तेरा मन!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday, 21 July 2022

बस चुनना था


रंग कई थे, बस चुनना था!

उभरे थे, पटल पर, अनगिन परिदृश्य,
छुपा उनमें ही, इक, बिंबित भविष्य,
कोई इक राह, पहुंचाती होगी साहिल तक,
राह वही, इक चुनना था,
दूर तलक, बस, उन पर चलना था!

रंग कई थे, बस चुनना था!

पंख लिए, उड़ा ले जाते, ख्वाब कहीं,
मन को, पथ से भटकाते चाह कई,
कहीं दूर, बहा ले जाते, दुविधाओं के पल,
हासिल जो, चुनना था,
चाहत के रंग, उनमें ही, भरना था!

रंग कई थे, बस चुनना था!

उलझन, उलझाएगी, हर चौराहों पर,
जीवन, ले ही जाएगी दो राहों पर,
हर सांझ, पटल पर छाएंगे रंगी परिदृश्य,
लक्षित, पथ चुनना था, 
उलझे भ्रम के जालों से बचना था!

रंग कई थे, बस चुनना था!

अशांत मन, होता है यूं ही शांत कहां,
बेवजह उलझन का, यूं अंत कहां,
सपन अनोखे, भर लाएंगे दो चंचल नैन,
चैन खुद ही चुनना था,
चुनकर ख्वाब वही इक बुनना था!

रंग कई थे, बस चुनना था!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday, 27 March 2020

मेरे नज्म

न नज्मों पे, मेरे जाइएगा!
ये बातें हैं, मन की, उलझ जाइएगा!

हो कैद, पल में, 
कभी, पल को लिखे!
यूँ, अचानक!
कभी, कुछ लिखे, कभी, कुछ भी लिखे!
विचरता, है स्वच्छंद,
अन्तर्द्वन्द, ना समझ पाइएगा!

न नज्मों पे, मेरे जाइएगा!

पलों के, संकुचन,
यूँ ही, गुजरते हुए क्षण!
रोके, ये मन,
थाम ले ये बाहें, कहे, चल कहीं बैठ संग!
गतिशील, हर क्षण,
इन्हीं द्वन्दों में, घिर जाइएगा!

न नज्मों पे, मेरे जाइएगा!

बहती सी, ये धारा,
न पतवार, है ना किनारा!
रोके, ना रुके,
उफनते ये लहर, जलजलों सा है नजारा!
तैरते, ये सिलसिले,
कहीं खुद को, डुबो जाइएगा!

न नज्मों पे, मेरे जाइएगा!

ये सुनता ही नहीं,
है मेरे, दिल की कभी!
ये, जिद्दी बड़ा, 
करता है बक-बक, जी में आए कुछ भी!
पागल सा ये मन,
ये बातें, ना समझ पाइएगा!

न नज्मों पे, मेरे जाइएगा!
ये बातें हैं, मन की, उलझ जाइएगा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
 (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday, 17 October 2019

नैन किनारे

उलझे ये दो बूँद तुम्हारे, नैन किनारे!

गम अगाध, तुम सह जाते थे,
बिन कुछ बोले, तुम रह जाते थे,
क्या, पीड़ पुरानी है कोई?
या, फिर बात रुहानी है कोई!
कारण है, कोई ना कोई!
क्यूँ उभरे हैं ये दो बूँद, नैन किनारे!

अनुत्तरित ये प्रश्न, नैन किनारे!

अकारण ही, ये मेघ नहीं छाते,
ये सावन, बिन कारण कब आते,
बदली सी, छाई तो होगी!
मौसम की, रुसवाई तो होगी!
कारण है, कोई ना कोई!
बह रहे बूँद बन धार, नैन किनारे!

अनुत्तरित ये प्रश्न, नैन किनारे!

बगैर आग, ये धुआँ कब उभरे!
चराग बिन, कब काजल ये सँवरे!
कोई आग, जली तो होगी!
हृदय ने ताप, सही तो होगी!
कारण है, कोई ना कोई!
क्यूँ बहते हैं जल-धार, नैन किनारे!

अनुत्तरित ये प्रश्न, नैन किनारे!

इक तन्हाई सी थी, नैन किनारे,
मची है शोर ये कैसी, नैन किनारे,
हलचल, कोई तो होगी,
खलल, किसी ने डाली होगी,
कारण है, कोई ना कोई!
चुप-चुप रहते थे बूँदें, नैन किनारे!

उलझे ये दो बूँद तुम्हारे, नैन किनारे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Thursday, 4 October 2018

निशाचर अखियाँ

कैसे कटे रतियाँ,
निशाचर सी हुई है दो अखियाँ....

ये नैन! जागे है सारी रैन,
करे ये अठखेलियां,
दबे पाँव चले, यहीं पलकों तले,
छुप-छुप, न जाने,
ये किस किस से मिले?
टुकर-टुकर ताके ये सारी रतियाँ,
निशाचर सी दो अखियाँ.....

ये निशा प्रहर भई दुष्कर,
न माने ये बतियां!
संग रैन चले, न ये निशा ढ़ले,
दिशा-दिशा भटके,
न ही नैनो में नींद पले,
उलझाए कर के उलझी बतियाँ,
निशाचर सी दो अखियाँ.....

ये नैन! पाये न क्यूँ चैन?
कटे कैसे रतियाँ?
राह कठिन, ये हर बार चले,
बोझिल सी पलकें,
रुक रुक अब हार चले,
जिद में जागी ये सारी रतियाँ,
निशाचर सी दो अखियाँ.....

कैसे कटे रतियाँ,
निशाचर सी हुई है दो अखियाँ....

Sunday, 5 November 2017

मेरे पल

वो कुछ पल जो थे बस मेरे......

युँ ही उलझ पड़े मुझसे कल सवेरे-सवेरे,
वर्षों ये चुप थे या अंतर्मुखी थे?
संग मेरे खुश थे या मुझ से ही दुखी थे?
सदा मेरे ही होकर क्युँ मुझ से लड़े थे?
सवालों में थे ये अब मुझको ही घेरे!

वो कुछ पल जो थे बस मेरे......

सालों तलक शायद था अनभिज्ञ मैं इनसे,
वो पल मुझ संग यूँ जिया भी तो कैसे?
किस बात पर वो इतना दुखी था?
मैं तो हर उस पल में सदा ही सुखी था!
उलझन बड़ी थी अब सामने मेरे!

वो कुछ पल जो थे बस मेरे......

दबे पाँव देखा टटोलकर उस पल को मैंने,
नब्ज चल रही थी मगर हौले-हौले,
व्याप्त सूनापन, जैसे सुधि कोई ना ले,
रिक्तियों से पूर्ण विरानियों में वो रहा था!
तन्हा ही रहा हरपल वो संग मेरे!

वो कुछ पल जो थे बस मेरे......

झकझोर कर रख दिया था उस पल ने मुझे,
टूटी थी तन्द्रा, अवाक् रह गया था मैं,
था स्वार्थी मैं, निस्वार्थ थी उसकी लगन,
झुंझलाहट में उसके भेद ये खुल चुका था!
फिर भी सहमा सा सामने था वो मेरे!

वो कुछ पल जो थे बस मेरे......

Tuesday, 14 June 2016

वो तस्वीर

बनती-बिगरती बादलों में उलझी सी इक तस्वीर,

हर क्षण रंग रूप बदलती वो तस्वीर,
पल पल दृग को वो छलती,
मनमोहक भावों से वो मन को हरती,
खुली जटाओं मे बादल की कहीं गुम हो जाती,

बरसती-बिखरती बादलों में बिखरी सी वो तस्वीर,

आकाश में फिर उभरती वो तस्वीर,
बादलों संग अठखेलियाँ करती,
चंचल सी स्वच्छंद विचरती वो तस्वीर,
भावप्रवण मन को कर खुद भावविहीन हो जाती,

जीवन के कितने ही किस्से कह जाती वो तस्वीर,

निःस्वार्थ जीवन जीती वो तस्वीर,
कुछ पल जग के दुख हर लेती,
आँखों में सपने जीने के भरती वो तस्वीर,
कर्मों की राह पर चलती फना हर बार वो होती,

कर्मपथ पर चलना सिखाती उलझी सी वो तस्वीर।

Sunday, 10 April 2016

रात

डराती रही रात, मगर हम गुनगुनाते रहे रात भर!

वो रात के साए,
खामोश गुजरते रहे,
लगी रही बस एक चुप सी,
सन्नाटे मगर गुनगुनाते रहे रात भर।

डराती रही रात, मगर हम गुनगुनाते रहे रात भर!

वो रात टूटी सी,
रात रोती रही रात भर,
काली कफन में लिपटी सी,
झिंगुर मगर गुनगुनाते रहे रात भर।

डराती रही रात, मगर हम गुनगुनाते रहे रात भर!

वो रात गुमसुम सी,
कुछ कह गई थी कानों में,
सुन न पाए सपन में डूबे हम,
तारे मगर गुनगुनाते रहे रात भर।

डराती रही रात, मगर हम गुनगुनाते रहे रात भर!

वो रात खोई-खोई सी,
जाने किन उलझनों में फसी सी,
बरसती रही ओस बन के गुलाब पर,
कलियाँ मगर गुनगुनाती रही रात भर।

डराती रही रात, मगर हम गुनगुनाते रहे रात भर!

वो रात विरहन सी,
मिल न पाई कभी भोर से,
रही दूर ही उजालों के किरण से,
दीपक मगर गुनगुनाती रही रात भर।

डराती रही रात, मगर हम गुनगुनाते रहे रात भर!

Saturday, 9 April 2016

शब्द

फैले हैं जाल शब्द के, मायने उलझती ही रहीं!

शब्द बच गए थे पोटली में,
बातें इक तरफा ही रहीं,
शेष बातों के लिए शब्द तड़पती ही रहीं!

अब बिन मायनों के शब्द वे,
इकहरे दुबले पतले से,
पोटली के दायरों में शब्द सिमटती ही रही!

उस शब्द की विसात क्या,
सुन न पाए हम जिन्हे,
जज्बात विखरते रहे शब्द विलखती ही रही!

खोल दी है मैनें उस पोटली को,
खुल के साँस शब्द लें सकें,
व्यक्त हो रहे भाव अब शब्द हँसती ही रही!

पर ये क्या?

शब्द ही उलझे है शब्द से,
जाल शब्दों के बने,
एहसास शिथिल हैं अब शब्द बिखरती रही!