शायद, छोड़ आया हूँ, वहीं मैं!
एक टुकड़ा मन!
घर से, निकला ही क्यूँ, बेवजह मैं?
न था आसान, इतना, कि आँखें मूंद लेता,
मन के, टुकड़ों को, कैसे रोक लेता!
समझा न पाया, मैं उनको,
आसान न था, समेट लेना, मन के टुकड़ों को!
शायद, छोड़ आया हूँ, वहीं मैं!
एक टुकड़ा मन!
मशगूल था, खुद में ही, था भला मैं!
यूँ, किसी की, हूक सुनकर, चल पड़ा था,
विह्वल सा हुआ था, एक टुकड़ा मन,
पिरोकर हूक, में खुद को,
मुश्किल था बड़ा, समेट लेना, शेष टुकड़ों को!
शायद, छोड़ आया हूँ, वहीं मैं!
एक टुकड़ा मन!
बस, होश है बाकी, शेष हूँ कहाँ मैं!
बेदखल, पराए गमों से, रह सका कहाँ मैं,
भिगोते ही रहे सदा, आँसूओं के घन,
बहला न पाया, मैं मन को,
बिखर कर, टूटना ही था, मन के टुकड़ों को!
शायद, छोड़ आया हूँ, वहीं मैं!
एक टुकड़ा मन!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)