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Thursday, 29 July 2021

जागती प्रकृति

वो, शून्य सा किनारा, स्तब्ध वो नजारा,
शायद, जाग रही हो प्रकृति,
वर्ना, ये पवन, न यूँ हमें छू लेती,
इक सदा, यूँ, हमें दे जाती!

निःशब्द कर गई, ठहरी सी झील कोई,
सदियों, कहीं हो जैसे खोई,
पथराई सी, डबडबाई, वो पलकें,
बोलती, कुछ, हल्के-हल्के!

वो शिखर! पर्वतों के हैं, या कोई योगी,
खुद में डूबा, तप में खोया,
वो तपस्वी, ज्यूँ है, साधना में रत,
युगों-युगों, यूँ ही, अनवरत!

हल्की-हल्की सी, झूलती, वो डालियाँ,
फूलों संग, झूमती वादियाँ,
बह के आते, वो, बहके से पवन,
बहक जाए, क्यूँ न ये मन!

बे-आवाज, गहराता कौन सा ये राज!
जाने, कौन सा है ये साज,
बरबस उधर, यूँ, खींचता है मौन,
इक सदा, यूँ देता है कौन!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 16 May 2021

गूढ़ बात

कोई गूढ़ सी, वो बात है......

उनींदी सी, खुली पलक,
विहँसती, निहारती है निष्पलक,
मूक कितना, वो फलक!
छुपाए, वो कोई, 
इक राज है!

कोई गूढ़ सी, वो बात है......

लबों की, वो नादानियाँ,
हो न हो, तोलती हैं खामोशियाँ,
सदियों से वो सिले लब!
दबाए, वो कोई,
इक बात है!

कोई गूढ़ सी, वो बात है......

हो प्रेम की, ये ही भाषा,
हृदय में जगाती, ये एक आशा,
यूँ ना धड़कता, ये हृदय!
बजाए, वो कोई,
इक साज है!

कोई गूढ़ सी, वो बात है......

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday, 11 December 2020

और कितना

और कितने, राज गहरे खोलोगे तुम!
और कितना, बोलोगे तुम!

सदियों तलक, चुप रहे कल तक,
ज्यूँ, बेजुबां हो कोई,
इक ठहरी नदी, कहीं हो, खोई-खोई,
पर, हो चले आज कितने,
चंचल से तुम!

और कितने, राज गहरे खोलोगे तुम!
और कितना, बोलोगे तुम!

रहा मैं, किनारों पे खड़ा, चुपचाप,
बह चली थी वो धारा,
बेखबर, जाने किसका था, वो ईशारा,
बस बह चले थे, प्रवाह में,
निर्झर से तुम!

और कितने, राज गहरे खोलोगे तुम!
और कितना, बोलोगे तुम!

बज उठा, कंदराओं में संगीत सा,
गा उठी, सूनी घाटियाँ,
चह-चहा उठी, लचक कर, डालियाँ,
छेड़ डाले, अबकी तार सारे,
सितार के तुम!

और कितने, राज गहरे खोलोगे तुम!
और कितना, बोलोगे तुम!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 2 May 2020

लाॅकडाउन

उलझे ये दिन है, कितने सवालों में!
घिर कर, अपने ही उजालों में, 
जीवन के जालों में!

बीता हूँ कितना, कितना मैं बचा हूँ?
कितना, मैं जीवन को जँचा हूँ,
हूँ शेष, या अवशेष हूँ,
भस्म हूँ या भग्नावशेष हूँ,
या हवन की रिचाओं में रचा हूँ!

उलझाते रहे, बीतते लम्हों के हिस्से,
छीनते रहे, मुझको ही मुझसे,
मेरे, जीवन के किस्से,
कैद हो चले, मेरे वो कल,
बचे हैं शेष, आखिरी ये हिस्से!

कतई ऐसा न था, जैसा मैं आज हूँ,
जैसे पहेली, या मैं इक राज हूँ,
बिल्कुल, अलग सा,
तन्हा, सर्वथा लाॅकडाउन हूँ,
बुत इक अलग , मैं बन गया हूँ !

सम्भाल लूँ अब, जो थोड़ा बचा हूँ!
जो उनकी, किस्सों में रचा हूँ,
बीत जाना, भी क्या?
तनिक शेष, रह जाऊँ यहाँ,
यूँ ही व्यतीत हो जाना भी क्या?

उलझे ये दिन है, कितने सवालों में!
घिर कर, अपने ही उजालों में, 
जीवन के जालों में!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 15 March 2020

अक्सर, ये मन

चुप-चुप, गुम-सुम सा रहता हर क्षण!
अक्सर, ये मन!

जाने, क्या-क्या रखा है मन के तहखाने?
सुख-दु:ख के, अणगिण से क्षण!
या कोई पीड़-प्रवण!
क्षणिक मिलन,
या हैं दफ्न!
दुरूह, विरह के क्षण!

चुप-चुप, गुम-सुम सा रहता हर क्षण!
अक्सर, ये मन!

संताप कोई, या, अकल्प सी बात कोई?
शायद, अधूरा हो संकल्प कोई!
कहीं, टूटा हो दर्पण!
बिखरा हो मन,
या हैं दफ्न!
गहरा सा, राज कोई!

चुप-चुप, गुम-सुम सा रहता हर क्षण!
अक्सर, ये मन!

किसने डाले, इस अभिव्यक्ति पर ताले?
जज़्बातों के, ये कैसे हैं प्याले?
गुप-चुप, पीता है मन!
सोती है धड़कन,
या हैं दफ्न!
चीखती, आवाज कोई!

चुप-चुप, गुम-सुम सा रहता हर क्षण!
अक्सर, ये मन!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday, 20 April 2016

लहराते गेसुओं संग

गेसुओं की काली लटों मे राज गहरे छुपे हैं कितने।

खुल के लहराए है ये,
किसके गेसु उन बादलों संग,
बिखर गई है जैसे खुश्बु,
हर तरफ इन हवाओं के संग,
जाल से बिछ रहे हैं,
अब यहाँ इन गेसुओं केे,
बंध रहा हर पल ये मन,
भीनी-भीनी उन गेसुओं संग।

खुल गए हैं राज गहरे, कितने ही इन गेसुओं के।

कुछ अलग ही बात है,
लहराते घनेरे से इन गेसुओं में,
उलझी हैं ये राहें तमाम,
घुँघरुओं सी इन गेसुओं में,
लट ये काले खिल रहे हैं,
इन बादलों संग उस ओट में,
बिखरे है हिजाब गेसुओं के,
मदहोशियों सी इन धड़कनों में।

उलझे हुए सब जाल में ही, इन शबनमी गेसुओं के।