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Thursday, 11 March 2021

जो गुजर गए

यह आघात, सह भी जाऊँ, 
यह दरिया दु:ख का, तर भी जाऊँ, 
उनको, वापस कैसे पाऊँ?
जो गुजर गए!

अन्त नहीं, इस लंबित वेदना का,
इस कुंठित चेतना का,
आसान नहीं, अपनों को खो देना,
है कठिन बड़ा, बिसार देना,
मन से उतार देना,
वो आभा मंडल, हो कैसे ओझल?
ठहरा सा, ये दृष्टि-पटल,
किधर भटकाऊँ!
वापस, उन्हें कहाँ से लाऊं?
जो गुजर गए!

छलके रुक जाए, वो नीर नहीं,
मंद पड़े, वो पीड़ नहीं,
आहत हो मन, अपनों को खोकर,
तो, नैन थके कब, रो-रो कर!
छलके, फफक परे,
उन यादों की, गलियारों में खोकर,
नैन तके, वो सूनी राहें,
वो ही पदचाप!
फिर वापस, कहाँ से लाऊं?
जो गुजर गए!

आघात नहीं, यह इक वज्रपात,
साथ नहीं, चलती रात,
वो अपने पथ, आहत मैं अपने पथ,
दुःख दोनों ही का, इक जैसा!
कौन किसे बहलाए,
दूर गुमसुम, चुप-चाप गुजरती रात,
जागे ये नैन, सारी रात,
किस्से सी बात!
अब, वापस, कहाँ से लाऊं?
जो गुजर गए!

यह आघात, सह भी जाऊँ, 
यह दरिया दु:ख का, तर भी जाऊँ, 
उनको, वापस कैसे पाऊँ?
जो गुजर गए!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)