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Sunday 30 April 2017

अचिन्हित तट

ओ मेरे उर की सागर के अचिन्हित से निष्काम तट....

अनगिनत लहर संवेदनाओं के उमरते तुम पर,
सूना है फिर भी क्यूँ तेरा ये तट?
सुधि लेने तेरा कोई, आता क्यूँ नहीं तेरे तट?
अचिन्हित सा अब तक है क्यूँ तेरा ये निश्छल तट?

ओ मेरे उर की सागर के अचिन्हित से निष्काम तट....

निश्छल, निष्काम, मृदुल, सजल तेरी ये नजर,
विरान फिर भी क्यूँ तेरा ये तट?
सजदा करने कोई, फिर क्यूँ न आता तेरे तट?
बिन पूजा के सूना क्यूँ, तेरा मंदिर सा ये निर्मल तट?

ओ मेरे उर की सागर के अचिन्हित से निष्काम तट....

भावुक होगा वो हृदय, जो तैरेगा तेरी लहरों पर,
चिन्हित होगा तब तेरा ये सूना तट!
प्रश्रय लेगी संवेदनाएं, सजदे जब होगे तेरे तट!
रुनझुन कदमों की आहट से, गूजेगा फिर तेरा ये तट।

ओ मेरे उर की सागर के अचिन्हित से निष्काम तट....

नियंत्रित तुम कर लेना, अपनी भावनाओ के ज्वर,
गीला न हो जाए कहीं तेरा ये तट!
पूजा के थाल लिए, देखो कोई आया है तेरे तट!
सजल नैनों से वो ही, सदा भिगोएगा फिर तेरा ये तट!

ओ मेरे उर की सागर के अचिन्हित से निष्काम तट....