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Friday 24 April 2020

भ्रम

यूँ, तट से, ना बह दूर कहीं!

बहते कहाँ, बहावों संग, तीर कहीं,
रह जाती सह-सह, पीर वहीं,
ऐ अधीर मन, तू रख धीर वही,
यूँ, तट से, ना बह दूर कहीं!

तूफाँ हैं दो पल के, खुद बह जाएंगे,
बहती सी है ये धारा, कब तक रुक पाएंगे,
परछाईं हैं ये, हाथों में कब आएंगे,
ये आते-जाते से, साए हैं घन के,
छाया, कब तक ये दे पाएंगे?
इक भ्रम है, मिथ्या है, रह इनसे, दूर कहीं,
यूँ, तट से, ना बह दूर कहीं!

गर चाहोगे, तो प्यास जगेगी मन में,
गर देखोगे, परछाईं ही उभरेगी दर्पण में,
बुन जाएंगे जाले, ये भ्रम जीवन में,
उलझाएंगे ही, ये धागे मिथ्या में,
सुख, कब तक ये दे पाएंगे?
इक छल है, तृष्णा है, रह इनसे, दूर कहीं,
यूँ, तट से, ना बह दूर कहीं!

पिघले-पिघले हो, मन में नीर सही,
अनवरत उठते हों, पीर कहीं,
भींगे-भींगे हों, मन के तीर सही,
यूँ, तट से, ना बह दूर कहीं!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday 31 October 2019

उम्मीद

हरी है उम्मीद, खुले हैं उम्मीदों के पट!

विपत्तियों के, ऊबते हर क्षण में,
प्रतिक्षण, जूझते मन में,
मंद पड़ते, डूबते उस प्रकाश-किरण में,
कहीं पलती है, इक उम्मीद,
उम्मीद की, इक महीन किरण,
आशा के, उड़ते धूल कण,
उम्मीदों के क्षण!

हौले से, कोई दे जाता है ढ़ाढ़स,
छुअन, दे जाती है राहत,
आशा-प्रत्याशा, ले ही लेती है पुनर्जन्म,
आभासी, इस प्रस्फुटन में,
कुछ संभलता है, बिखरा मन,
बांध जाते है टूटे से कोर,
उम्मीदों के डोर!

उपलाते, डगमगाते उस क्षण में,
हताश, साँसों के घन में,
अवरुद्ध राह वाले, इस जीवन-क्रम में,
टूटते, डूबते भरोसे के मध्य,
कहीं तैरती है, भरोसे की नैय्या,
दिखते हैं, मझधार किनारे,
उम्मीदों के तट!

हरी है उम्मीद, खुले हैं उम्मीदों के पट!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Wednesday 9 January 2019

छद्मविभोर

हर सांझ, मैं किरणों के तट पर,
लिख लेता हूँ, थोड़ा-थोड़ा सा तुझको.....

कहीं तुम्हारे होने का,
छद्म विभोर कराता एहसास,
और ये दूरी का,
विशाल-काय आकाश,
सीमा-विहीन सी शून्यता,
गहराती सी ये सांझ,
रिक्तता का देती है आभास,
गगन पर दूर,
कहीं मुस्काता है वो चाँद,
छद्मविभोर हो उठता है ये मन...

हर सांझ, सीमा-हीन इस तट पर,
लिख लेता हूँ, मैं थोड़ा-थोड़ा तुझको.....

पंछी से लेता हूँ कलरव
किरणों से ले लेता हूँ तुलिकाएँ,
छंद कोई गढ़ लेता हूँ,
तस्वीर अधूरी सी,
उभार लाती है ये सांझ,
सजग हो उठती है कल्पना,
दूर क्षितिज पर,
नीलाभ सा होता आकाश,
संग मुस्काता वो चाँद,
छद्मविभोर हो उठता है ये मन...

हर सांझ, नील गगन के तट पर,
लिख लेता हूँ, मैं थोड़ा-थोड़ा तुझको.....

Tuesday 7 November 2017

वापी

ले चल तू मुझको उस वापी ऐ नाविक,
हो आब जहाँ मेरे मनमाफिक।

अंतःसलिल हो जहाँ के तट,
सूखी न हो रेत जहाँ की,
गहरी सी हो वो वापी, हो मीठी सी आब जहाँ की।

दीड घुमाऊँ मैं जिस भी ओर,
हो चहुँदिश नीवड़ जीवन का शोर,
मन के क्लेश धुल जाए, हो ऐसी ही आब जहाँ की।

वापी जहाँ थिरता हो धीरज,
अंतःकीचड़ खिलते हों जहाँ जलज,
मन को शीतल कर दे, ऐसी खार हो आब जहाँ की।

ले चल तू मुझको उस वापी ऐ नाविक,
हो आब जहाँ मेरे मनमाफिक।

ऐ नाविक, रोको मत,
तुम खुद बयार बन पाल भरो,
बह जाने दो इस वापी में, मनमाफिक है आब यहाँ की।

Sunday 30 April 2017

अचिन्हित तट

ओ मेरे उर की सागर के अचिन्हित से निष्काम तट....

अनगिनत लहर संवेदनाओं के उमरते तुम पर,
सूना है फिर भी क्यूँ तेरा ये तट?
सुधि लेने तेरा कोई, आता क्यूँ नहीं तेरे तट?
अचिन्हित सा अब तक है क्यूँ तेरा ये निश्छल तट?

ओ मेरे उर की सागर के अचिन्हित से निष्काम तट....

निश्छल, निष्काम, मृदुल, सजल तेरी ये नजर,
विरान फिर भी क्यूँ तेरा ये तट?
सजदा करने कोई, फिर क्यूँ न आता तेरे तट?
बिन पूजा के सूना क्यूँ, तेरा मंदिर सा ये निर्मल तट?

ओ मेरे उर की सागर के अचिन्हित से निष्काम तट....

भावुक होगा वो हृदय, जो तैरेगा तेरी लहरों पर,
चिन्हित होगा तब तेरा ये सूना तट!
प्रश्रय लेगी संवेदनाएं, सजदे जब होगे तेरे तट!
रुनझुन कदमों की आहट से, गूजेगा फिर तेरा ये तट।

ओ मेरे उर की सागर के अचिन्हित से निष्काम तट....

नियंत्रित तुम कर लेना, अपनी भावनाओ के ज्वर,
गीला न हो जाए कहीं तेरा ये तट!
पूजा के थाल लिए, देखो कोई आया है तेरे तट!
सजल नैनों से वो ही, सदा भिगोएगा फिर तेरा ये तट!

ओ मेरे उर की सागर के अचिन्हित से निष्काम तट....