देती रही, आहटें,
धूल-धूल होती, लिखावटें,
बिखर कर,
मन के पन्नों पर!
अकाल था, या शून्य काल?
कुछ लिख भी ना पाया, इन दिनों....
रुठे थे, जो मुझसे वे दिन!
छिन चुके थे, सारे फुर्सत के पल,
लुट चुकी थी, कल्पनाएँ,
ध्वस्त हो चुके थे, सपनों के शहर,
सारे, एक-एक कर!
देती रही, आहटें,
धूल-धूल होती, लिखावटें,
बिखर कर,
मन के पन्नों पर!
विहान था, या शून्य काल?
हुए थे मुखर, चाहतों में पतझड़....
ठूंठ, बन चुकी थी टहनियाँ,
कंटको में, उलझी थी कलियाँ,
था, अवसान पर बसन्त,
मुरझाए थे, भावनाओं के गुलाब,
सारे, एक-एक कर!
देती रही, आहटें,
धूल-धूल होती, लिखावटें,
बिखर कर,
मन के पन्नों पर!
सवाल था, या शून्य काल?
लिखता भी क्या, मैं शून्य में घिरा....
अवनि पर, गुम थी ध्वनि!
लौट कर आती न थी, गूंज कोई,
वियावान, था हर तरफ,
दब से चुके थे, सन्नाटों में सृजन,
सारे, एक-एक कर!
देती रही, आहटें,
धूल-धूल होती, लिखावटें,
बिखर कर,
मन के पन्नों पर!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
धूल-धूल होती, लिखावटें,
बिखर कर,
मन के पन्नों पर!
अकाल था, या शून्य काल?
कुछ लिख भी ना पाया, इन दिनों....
रुठे थे, जो मुझसे वे दिन!
छिन चुके थे, सारे फुर्सत के पल,
लुट चुकी थी, कल्पनाएँ,
ध्वस्त हो चुके थे, सपनों के शहर,
सारे, एक-एक कर!
देती रही, आहटें,
धूल-धूल होती, लिखावटें,
बिखर कर,
मन के पन्नों पर!
विहान था, या शून्य काल?
हुए थे मुखर, चाहतों में पतझड़....
ठूंठ, बन चुकी थी टहनियाँ,
कंटको में, उलझी थी कलियाँ,
था, अवसान पर बसन्त,
मुरझाए थे, भावनाओं के गुलाब,
सारे, एक-एक कर!
देती रही, आहटें,
धूल-धूल होती, लिखावटें,
बिखर कर,
मन के पन्नों पर!
सवाल था, या शून्य काल?
लिखता भी क्या, मैं शून्य में घिरा....
अवनि पर, गुम थी ध्वनि!
लौट कर आती न थी, गूंज कोई,
वियावान, था हर तरफ,
दब से चुके थे, सन्नाटों में सृजन,
सारे, एक-एक कर!
देती रही, आहटें,
धूल-धूल होती, लिखावटें,
बिखर कर,
मन के पन्नों पर!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)