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Thursday 19 March 2020

धुंधलाहट

हैं कहीं, कोहरे सी जमीं?
या फिर, धुंधलाने लगा है जरा सा!
पारदर्शी सा, ये शीशा!

कुछ भी, पहले सा नहीं!
पटल वही, दृश्य वही, साँसें हैं वही!
कुछ, नया भी तो नहीं!

शायद, घुल रहा हो भ्रम?
भ्रमित हो मन, डरा हो अन्तःकरण!
दिशाएँ, हो रही हो नम!

कहीं, बारिश भी तो नहीं!
तपिश है, जलन है, गर्माहट है वही!
फिर क्यूँ, नमीं सी जमीं!

चुप होने लगी, हैं तस्वीरें!
ख़ामोश होने लगी हैं, सारी तकरीरें!
मिटने लगी हैं ये लकीरें!

भटकने लगे, हैं ये कदम!
हलक तक, आकर रुकी है जान ये!
अटक सी, गई ये साँसें!

है अपारदर्शी, ये व्यापार!
मनुहार, चल रहा शीशे के आर पार!
धुआँ सा, उठता गुबार!

हैं कहीं, कोहरे सी जमीं?
या फिर, धुंधलाने लगा है जरा सा!
पारदर्शी सा, ये शीशा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday 28 August 2019

तपिश

रह गई है, अब भी बाकी,
इस दिल में,
एक तपिश सी साकी!

बेमेल से हैं, विचारों के मेले,
धर्म के, अनर्थक झमेले,
रक्तिम होते, ये अन्तहीन उन्माद,
थमते नहीं, झूठ के विवाद!
गुजारी हैैं सदियाँ,
इन विवादों के दरमियाँ,
रक्तरंजित होते, देखी हैं गलियााँ,
धर्म की आड़ में,
कट गए कितने ही गले,
विसंगति धर्म की,
लेकिन, कहाँ इतनी रक्त से धुले?
आज भी है बाकि,
इसमें, अधूरी प्यास खून की!

सो, रह गई है अब भी बाकी,
इस दिल में,
एक तपिश सी साकी!

लाशों के ढ़ेर पर, हैं हम खड़े,
धर्म के नाम, हैं हम लड़े,
है कुछ ठेकेदारों की ये साझेदारी,
अक्ल हमारी गई है मारी,
हैं बस वो ही प्यारे!
रक्त पीते हैं जो हमारे,
उनकी राजनीति, के ये खेेेल सारे
चलते हैं लाश से,
जिंदगानियों की सांस से,
साजिशें धर्म की,
लेकिन, हम कहाँ समझ सके!
है उनकी बातों में,
सड़ान्ध, गलते हुए लाशों की!

सो, रह गई है अब भी बाकी,
इस दिल में,
एक तपिश सी साकी!

खून के घूँट, यूँ पी लेता हूँ मैं,
जीने को, तो जीता हूँ मैं,
तर्कों-कुतर्कों, से होकर असहज,
करते हुए खुद को सहज,
उम्मीदों के सहारे!
सदियों, हैं हमने गुजारे,
काश! मिट जाते ऐसे धर्म सारे,
बांटते हैं जो दिलों को,
दिग्भ्रमित करते हैं हमको!
मानव धर्म की,
हम महज कल्पना ही कर सके!
नींद में ही देखे,
सपने! समरस समाज की!

सो, रह गई है अब भी बाकी,
इस दिल में,
एक तपिश सी साकी!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Monday 25 June 2018

प्रणय फुहार

प्रणय की फुहार में, जब भी भीगा है ये मन .....

सुकून सा कोई, मिला है हर मौसम,
न ही गर्मी है, न ही झुलसती धूप,
न ही हवाओं में, है कोई दहकती जलन...

प्रणय की फुहार में, जब भी भीगा है ये मन .....

कोई नर्म छाँव, लेकर आया हो जैसे,
घन से बरसी हों, बूंदों की ठंढ़क,
रेतीली राहों में, कम है पाँवों की तपन....

प्रणय की फुहार में, जब भी भीगा है ये मन .....

चल पड़ता हूं मैं गहरे से मझधार में,
भँवर कई, उठते हों जिस धार में,
है बस चाहों में, इक साहिल की लगन....

प्रणय की फुहार में, जब भी भीगा है ये मन .....

हाँ! ये तपिश, पल-पल होती है कम,
है ऐसा ही, ये प्रणय का मौसम,
इस रिमझिम में, यूं भीगोता हूं मैं बदन.....

प्रणय की फुहार में, जब भी भीगा है ये मन .....

Saturday 27 January 2018

गुनगुनी धूप

गुनगुनी धूप, खींच लाई दामन में मुझको...

कई दिनों के सर्द मौसम में,
मखमली एहसास दिला गई थी धूप,
ठिठुरते कांपते बदन को,
तपिश ने दी थी राहत थोड़ी सी...

हरियाली निखरी पात पात में,
बसंत की थपकी ले, खिली थी फूल,
रूप मिला था कलियों को,
रुख बदली थी हवाओं ने अपनी....

रंग कई भर आए थे बागों में,
कितने रांझे, बैठे थे राहों को भूल,
स्वर मिले थे कोयल को,
बदले थे आस्वर फिजाओं के भी....

निरन्तर कहर ढ़ाते मौसम में,
सृजन का आभास दे गई थी धूप,
संकुचित सी वातावरण को,
तपिश ने दी थी राहत थोड़ी सी...

शब्द शब्द हुए मुखर नेह में,
अक्षर अक्षर दे रही सुगंध देह की 
फ़ैली है सुरभि अन्तर्मन की,
सजल नयन है इक पाती प्रेम की....

मौसम की ये गुनगुनी धूप, भा गई मुझको...

Saturday 13 May 2017

कोणार्क

लो मैं चली कोणार्क, हूँ मैं अपने साजन की दुल्हन....
ओ री बहकती चिलचिलाती लहकती सी किरण,
है ये कोणार्क, न बढा अपनी ये तपिश अपनी ये जलन,
कर दे जरा छाँव, मिटे तन की ये दहकती सी तपन,
ओ री सुलगती तपतपाती दहकती सी किरण....

आज यूँ न तू जल मुझसे, आ जा सहेली तू मेरी बन,
कर जरा छाँव घनी, दूर जा बैठा है मेरा साजन,
है ये कोणार्क, तू घटा अपनी तपिश अपनी ये जलन,
तू जा कह जरा उनसे, फिर न वापस आएगी ये छुअन,
ओ री सुलगती तपतपाती दहकती सी किरण....

लो मैं चली कोणार्क, हूँ मैं अपने साजन की दुल्हन....
संस्मरण 11 मई 2017
रचयिता :    अनु