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Sunday, 2 June 2019

सौंधी मिट्टी

बरबस, लौट आते हैं परदेशी,
सौंधी सी खुश्बू, मिट्टी की अपनी पाकर!

सौंधी सी ये खुश्बू, है अपनेपन की,
अटूट संबंधो और बंधन की,
अब भस्म हो चुके जो, उस अस्थि की,
बिछड़े से, उस आलिंगन की,
खींच लाते हैं वो ही, फिर चौखट पर!

सौंधी सी ये खुशबू, है इस मिट्टी की,
धरोहर, है जिनमें उन पुरखों की,
निमंत्रण, उनको दे जाती हैं जो अक्सर,
बरबस, लौट आते हैं परदेशी,
सौंधी सी वो ही खुश्बू, मिट्टी की पाकर!

सौंधी सी ये खुश्बू, है संस्कारों की,
संबंधों के, उन शिष्टाचारों की,
छूट चुके हैं जो अब, उन गलियारों की,
बचपन के, नन्हें से यारों की,
पुकारते हैं जो, फिर रातों में आकर!

सौंधी सी खुश्बू, है उन उमंगों की,
तीन रंगों में रंगे, तिरंगों की,
स्वतंत्रता व स्वाभिमान, के जंगों की,
बासंती से, खिलते रंगों की,
लोहित वो मिट्टी, बुलाती है आकर!

बरबस, लौट आते हैं परदेशी,
सौंधी सी खुश्बू, मिट्टी की अपनी पाकर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Saturday, 23 January 2016

मिट्टी का कर्ज

ओ प्राणदायक मिट्टी तेरा कर्ज उतारूँ कैसे?

हार-माँस काया मिट्टी का बना,
तेरे कण की बूँद से गया कढ़ा,
अंकपाश तेरे जग पला- बढ़ा,
भूख प्यास मे तुझको ही काटा।

ओ जीवनरक्षक मिट्टी तेरा कर्ज उतारूँ कैसे?

स्वर्ण हरितिमा पत्तों को देता,
अंश जीवन का तुझमे पलता,
मूक प्राणमूल जीवन मे भरता,
मृत्यु समय अपने उर भर लेता।

ओ कष्टनिवारक मिट्टी तेरा कर्ज उतारूँ कैसे?