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Sunday 12 September 2021

वो तुम हो

संग मेरे, मेरे ही सपनों को, बुनते हो,
वो तुम हो, तुम ही हो!

यूँ तो सर्वथा, सर्वदा, हूँ तुझसे जुदा,
मिलते रहे, क्षितिज की, लाली में सदा,
देकर, इक सिंदूरी सी सदा,
विरान मेरे आंगन में, रोज उतरते हो,
वो तुम हो, तुम ही हो!

संग मेरे, मेरे ही सपनों को, बुनते हो।

यूँ, बहकाने को आएं, दशों दिशाएँ,
रस्ते कितने, दूर दिशाओं को ले जाएँ,
और, ले आते हो, तुम यहाँ,
यूँ अफसाने, सदियों के, लिखते हो,
वो तुम हो, तुम ही हो!

संग मेरे, मेरे ही सपनों को, बुनते हो।

उठते हो, भीनी सी ख़ुशबू बन के,
छलके, एहसासों संग, बूँदों में ढ़लके,
गहराई, सावन सी, पलकें,
उमंग कई, एहसासों मे, भरते हो,
वो तुम हो, तुम ही हो!

संग मेरे, मेरे ही सपनों को, बुनते हो।

यूँ तो सर्वथा, सर्वदा, हूँ तुझसे जुदा,
मिले भी कहीं, पल दो पल, यदा-कदा,
पर हो, एहसासों में, सर्वदा,
टुकड़े, मेरे ही टूटे पल के, चुनते हो,
वो तुम हो, तुम ही हो!

संग मेरे, मेरे ही सपनों को, बुनते हो,
वो तुम हो, तुम ही हो!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 20 June 2021

नजारे

हसीन कितने, हैं ये नजारे,
पर, अब भी, 
तुझे ही, देखते हैं वो सारे!

तुम ही तो लाये थे, झौंके पवन के,
ये नूर तेरे ही, नैनों से छलके,
बिखरे फलक पर, बनकर सितारे,
बादलों के किनारे!

हसीन कितने, हैं ये नजारे,
पर, अब भी, 
तुझे ही, देखते हैं वो सारे!

रोकती हैं, हसरत भरी तेरी निगाहें,
रौशन है तुझसे, घटाटोप राहें,
उतरा हो जमीं पर, वो चाँद जैसे,
पलकों के सहारे!

हसीन कितने, हैं ये नजारे,
पर, अब भी, 
तुझे ही, देखते हैं वो सारे!

बिखर सी गई, उम्र की, ये गलियाँ,
निखर सी गईं, और कलियाँ,
यूँ तूने बिखेरा, खुशबू का तराना,
आँचलों के सहारे!

हसीन कितने, हैं ये नजारे,
पर, अब भी, 
तुझे ही, देखते हैं वो सारे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 2 June 2019

सौंधी मिट्टी

बरबस, लौट आते हैं परदेशी,
सौंधी सी खुश्बू, मिट्टी की अपनी पाकर!

सौंधी सी ये खुश्बू, है अपनेपन की,
अटूट संबंधो और बंधन की,
अब भस्म हो चुके जो, उस अस्थि की,
बिछड़े से, उस आलिंगन की,
खींच लाते हैं वो ही, फिर चौखट पर!

सौंधी सी ये खुशबू, है इस मिट्टी की,
धरोहर, है जिनमें उन पुरखों की,
निमंत्रण, उनको दे जाती हैं जो अक्सर,
बरबस, लौट आते हैं परदेशी,
सौंधी सी वो ही खुश्बू, मिट्टी की पाकर!

सौंधी सी ये खुश्बू, है संस्कारों की,
संबंधों के, उन शिष्टाचारों की,
छूट चुके हैं जो अब, उन गलियारों की,
बचपन के, नन्हें से यारों की,
पुकारते हैं जो, फिर रातों में आकर!

सौंधी सी खुश्बू, है उन उमंगों की,
तीन रंगों में रंगे, तिरंगों की,
स्वतंत्रता व स्वाभिमान, के जंगों की,
बासंती से, खिलते रंगों की,
लोहित वो मिट्टी, बुलाती है आकर!

बरबस, लौट आते हैं परदेशी,
सौंधी सी खुश्बू, मिट्टी की अपनी पाकर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Monday 4 April 2016

शायद भरम था वो

क्या खुशबू थी वो, जो मेरी साँसों में उतर गई?

शायद कचनार खिली हैं कहीं?
क्यों बिखरे है इतर हवाओं में यूँही?
कहीं रजनीगंधा ने छेड़ी गजल तो नहीं?
साँसों में ये मादक महक सी है क्युँ?

क्या हवा थी वो, जो मुझको छूकर गुजर गई?

अनायास रुक गया था मैं क्युँ?
पुकार गुंजी थी किन सदाओं की?
सिहर सी गई थी क्युँ साँसे मेरी?
सरसराहट उन पत्तियों में है क्युँ?

क्या सपना था वो, जो मुझको बेखबर कर गई?

एतबार क्युँ मेरे मन को नही?
कहीं है वो मेरे करीब या कि नहीं?
कही भ्रम वो मेरे मन का तो नहीं?
आँखों में उलझे हैं जाल से क्युँ?

शायद भरम था वो, जो मुझको गुमराह कर गई!