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Sunday, 4 December 2022

छोर

इधर ही, उस राह का इक छोर है,
लिए जाए किधर, ये मोड़ है!

छोड़ आए, उधर ही, कितनी गलियां,
कितने सपने, छूटे उधर,
मन के मनके, टूटकर, बिखरे राह में,
अब, लौट भी न, पाएं उधर,
छूटा जिधर, वो डोर है!

लिए जाए किधर, ये मोड़ है!

शक्ल अंजान कितने, इस छोर पर,
हैं हादसे, हर मोड़ पर,
सिमटता हर आदमी अपने आप में,
डस रही, अपनी परछाइयां,
विरान कैसा, ये छोर है!

लिए जाए किधर, ये मोड़ है!

धूल-धुसरित हो चले, ये पांव सारे,
धूमिल से दोनों किनारे,
ढूंढता खुद की ही, पहचान राहों में,
थक कर, चूर-चूर ये बदन, 
करे हैरान, यह छोर है!

इधर ही, उस राह का इक छोर है,
लिए जाए किधर, ये मोड़ है!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 13 June 2021

झिझक

झिझक, संकोच, हिचकिचाहट!
काश, दुविधाओं के ये, बादल न होते!
इन्हीं स्मृति के दायरों में, हम तुम्हें रोक लेते,
यूँ न, धुँध में, तुम कहीं खोते!

किस मोड़, जाने मुड़ गईं राहें!
विवश, न जाने, किस ओर, हम चले!
दरमियाँ, वक्त के निशान, फासले कम न थे,
उस धुँध में, कहाँ, तुझे ढूंढ़ते!

तुम तक, ये शायद, पहुँच जाएँ!
शब्द में पिरोई, झिझकती संवेदनाएँ,
कह जाएँ वो, जो न कह सके कहते-कहते!
रोक लें तुझे, यूँ चलते-चलते!

ओ मेरी, स्मृति के सुमधुर क्षण!
बे-झिझक खनक, सुरीली याद संग,
स्मृतियों के, इन दायरों में, आ रोक ले उन्हें,
यूँ न खो जाने दे, धुँध में उन्हें!

झिझक, संकोच, हिचकिचाहट!
काश, झिझक के, दुरूह पल न होते,
उन्हीं स्मृति के दायरों में, हम तुम्हें रोक लेते,
यूँ न, धुँध में, तुम कहीं खोते!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday, 31 July 2020

उम्मीदों के तारे

चलो के, चलने लगे हैं ये नजारे!
रोके, रुक न पाएंगे,
वो बिन तुम्हारे!

एक तुम हो के, ठहर से जाते हो,
हर बात पर,
यूँ, मुकर भी जाते हो,
ठहरेंगे, ना वो पल, बिन तुम्हारे!
रोके, रुक न पाएंगे,
सारे बे-सहारे!

यूँ तो ना बैठो, मुँह उधर फेरकर,
मन तोड़ कर,
यूँ, रंगों को छोड़ कर,
टूटे पलों से, खुद को जोड़ कर,
मर भी न पाएंगे ये,
नजर के मारे!

क्यूँ हो मलाल, बिखरे हैं गुलाल,
उस गगन पर,
क्षितिज के, कोर पर,
लम्हे हजार, खड़े उस मोड़ पर,
यूँ ही, गुजर न जाएँ,
लम्हे ये सारे!

पल-पल, संकुचित होंगे ये क्षण,
हर शाख पर,
छोड़ जाएंगे, ये निशां,
रूठो न यूँ, पलों को छोड़ कर,
यूँ ही, ढ़ल न जाए,
पलों के इशारे!

उभरेंगे, समय के, नव-संस्करण,
उस काल पर,
शायद, हम-तुम न हों!
वक्त के भाल पर, ये रंग न हो!
या, फिर हम न हों,
हमदम तुम्हारे!

चल चलें, उन्हीं पगडंडियों पर,
उसी राह पर,
बुन लें, अधूरे ये सपन,
चुन लें, वक्त के सारे संकुचन!
भर लें, फिर नयन में, 
उम्मीदों के तारे!

चलो के, चलने लगे हैं ये नजारे!
रोके, रुक न पाएंगे,
वो बिन तुम्हारे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 12 July 2020

एकाकी

यूँ संग तुम्हारे,
देर तक, तकता हूँ, मैं भी तारे,
हो, तुम कहीं,
एकाकी हूँ, मैं कहीं,
हैं जागे,
रातों के, पल ये सारे!

यूँ तुमको पुकारे,
शायद तुम मिलो, नभ के किसी छोर पर,
कहीं, सितारों के कोर पर,
मिलो, उस पल में, किसी मोड़ पर,
एकाकी पल हमारे,
संग तुम्हारे,
व्यतीत हो जाएंगे, सारे!

यूँ बिन तुम्हारे,
शायद, ढूंढ़ते हैं, उस पल में, खुद ही को,
ज्यूँ थाम कर, प्रतिबिम्ब को,
मुखर है, झील में, ठहरा हुआ जल,
हैं चंचल ये किनारे,
और पुकारे,
बहते, पवन के इशारे!

यूँ संग हमारे,
चल रे मन, चल, फिर एकाकी वहीं चल!
अनर्गल, बिखर जाए न पल,
चल, थाम ले, सितारों सा आँचल,
नैनों में, चल उतारे,
वो ही नजारे,
जीत लें, पल जो हारे!

यूँ संग तुम्हारे,
देर तक, तकता हूँ, मैं भी तारे,
हो, तुम कहीं,
एकाकी हूँ, मैं कहीं,
हैं जागे,
रातों के, पल ये सारे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, 18 June 2019

मन के रार

मन रे, तू इतना क्यूँ रार करे?

छोड़ न, तू ये जिद!
क्यूँ है तू, अपनी मर्जी पे काबिज?
गर होता वो अपना, वो खुद ही आता, 
तुझको अपनाता,
जिद, वो खुद करता!
यूँ तुझको, ना वो तड़पाता!
इक-तरफा चाहत में,
क्यूँ खुुुद को बेजार करे?
तड़पाएंगे ये तुुुुझको, फिर क्यूँ तू रार करे?

मोड़ ले, अपनी राहें!
भर ना तू, उनकी चाहत में आहें!
क्यूँ उनको ही चाहे, खुद को भटकाए,
अंजान दिशाएं,
क्यूँ खुद को ले जाए?
यूँ दिल को, तू क्यूँ उलझाए!
है ये भूल-भुलैया,
रुख क्यूँ उस ओर करे?
भटकाएंगे ये तुझको, फिर क्यूँ तू रार करे?

तोड़ दे, तू ये भरम!
इक दिन, दे जाएगा बस वो गम!
जिद, बन जाएगा तेरे गम का कारण,
है वो इक वहम,
और अनमोल है जीवन,
भूल न तू, जीवन के ये मरम!
बहती ये पवन,
कोई हाथों में कैैैसे भरे?
परछाईं के पीछे, क्यूँ खुद को शर्मसार करे?

मन रे, तू इतना क्यूँ रार करे?

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा