Tuesday, 18 June 2019

मन के रार

मन रे, तू इतना क्यूँ रार करे?

छोड़ न, तू ये जिद!
क्यूँ है तू, अपनी मर्जी पे काबिज?
गर होता वो अपना, वो खुद ही आता, 
तुझको अपनाता,
जिद, वो खुद करता!
यूँ तुझको, ना वो तड़पाता!
इक-तरफा चाहत में,
क्यूँ खुुुद को बेजार करे?
तड़पाएंगे ये तुुुुझको, फिर क्यूँ तू रार करे?

मोड़ ले, अपनी राहें!
भर ना तू, उनकी चाहत में आहें!
क्यूँ उनको ही चाहे, खुद को भटकाए,
अंजान दिशाएं,
क्यूँ खुद को ले जाए?
यूँ दिल को, तू क्यूँ उलझाए!
है ये भूल-भुलैया,
रुख क्यूँ उस ओर करे?
भटकाएंगे ये तुझको, फिर क्यूँ तू रार करे?

तोड़ दे, तू ये भरम!
इक दिन, दे जाएगा बस वो गम!
जिद, बन जाएगा तेरे गम का कारण,
है वो इक वहम,
और अनमोल है जीवन,
भूल न तू, जीवन के ये मरम!
बहती ये पवन,
कोई हाथों में कैैैसे भरे?
परछाईं के पीछे, क्यूँ खुद को शर्मसार करे?

मन रे, तू इतना क्यूँ रार करे?

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

8 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (19-06-2019) को "सहेगी और कब तक" (चर्चा अंक- 3371) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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    1. शुक्रिया आभार आदरणीया उर्मिला जी।

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  3. आपकी लिखी रचना "पाँच लिंकों का आनन्द" में गुरुवार 20 जून 2019 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  4. बहुत सुंदर.. मन की उद्विग्नता को प्रस्तुत करती कविता।

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    1. बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीया पम्मी जी। स्वागतम

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