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Sunday 25 October 2020

चुभन

यूँ, खो न देना, सिमटते इन पलों को तुम!

हो गए हो, गुम कहीं आज कल तुम!
हाँ संक्रमण है, कम ही मिलने का चलन है!
वेदना है, अजब सी इक चुभन है!
तो, काँटे विरह के, क्यूँ बो रहे हो तुम?

यूँ, खो न देना, सिमटते इन पलों को तुम!

चल कर ना मिलो, मिल के तो चलो!
हाँ, पर यहाँ, मिल के बिसरने का चलन है!
सर्द रिश्तों में, कंटक सी चुभन है!
तो, रिश्ते भूल के, क्यूँ सो रहे हो तुम?

यूँ, खो न देना, सिमटते पलों को तुम!

पल कर, शूल पर, महकना फूल सा,
हाँ, खिलते फूलों के, बिखरने का चलन है!
पर, बंद कलियों में इक चुभन है!
तो, यूँ सिमट के, क्यूँ घुट रहे हो तुम?

यूँ, खो न देना, सिमटते इन पलों को तुम!

एकाकी, हो चले हो, आज कल तुम,
हाँ, संक्रमण है, एकांत रहने का चलन है!
पर, स्पंदनों में, शूल सी चुभन है!
तो, यूँ एकांत में, क्यूँ खो रहे हो तुम?

यूँ, खो न देना, सिमटते इन पलों को तुम!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday 28 March 2020

कोरोना - ये भी, इक दौर है

ये भी, इक दौर है....
विस्तृत गगन, पर न कहीं ठौर है!
सिमट चुकी है, ये संसृति,
शून्य सी, हुई चेतना,
और एक, गर्जना,
कोरोना!

बेखुदी में, दौर ये....
कोई मरे-मिटे, करे कौन गौर ये!
खुद से ही डरे, लोग हैं,
झांकते हैं, शून्य में,
और एक, वेदना,
कोरोना!

क्रूर सा, ये दौर है....
मानव पर, अत्याईयों का जोर है!
लीलती, ये जिन्दगानियाँ,
रौंदती, अपने निशां,
और एक, गर्जना,
कोरोना!

ढ़लता नहीं, दौर ये....
सहमी क्षितिज, छुप रहा सौर ये!
संक्रमण का, काल यह,
संक्रमित है, ये धरा,
और एक, वेदना,
कोरोना!

ये भी, इक दौर है....
विचलित है मन, ना कहीं ठौर है!
बढ़ने लगे है, उच्छवास,
करोड़ों मन, उदास,
और एक, गर्जना,
कोरोना!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)