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Monday, 3 February 2020

बसंत के दरख्त-2

ऐ आलि!
ये दरख्त, ये वक्त, बसंत के!
क्या, सूख जाएंगे?
चुप्पी साधेंगे पंछी, या दूर कहीं उड़ जाएंगे!

संध्या की लाली,
इठलाते, बसंत की हरियाली,
चक्र है, ये जीवन का,
क्या जाने?
माली!
सूखे थे कब, बसंत के ये दरख्त, 
ऐ आलि,
गुनगाएंगे अलि,
पंछी, कल फिर से आएंगे,
दूर कहाँ जाएंगे!
टूटेगी चुप्पी,
दरख्तों पर, फिर छाएगी हरियाली!
ऐ आलि!

रंग, नए उभरेंगे,
उमंग नए, अंग-अंग जागेंगे,
बदलेंगे, थोड़े ये चेहरे,
अभिव्यक्त,
फिर से ये होंगे,
बौराई बातें, अंतरंग सी संवादें,
उभरेंगी,
वो ही सिलवटें,
चहचहाते, फिर आएंगे पंछी,
झूम जाएंगी डाली,
लता गाएंगी,
झूल जाएगी, झूलों सी ये मतवाली,
ऐ आलि!

नादान हैं वो,
ना समझ, समझे ना बसंत को,
पंछी बेचारे, 
अपनी, विपदा के मारे,
चुप, हैं आधे,
कुछ, दम को साधे,
देखो ना, बसंत की हरियाली,
चुप साधे, 
संध्या, 
लाई है लाली,
मुरझाई सी, वो किरणें शर्मीली,
ऐ आलि!

चुप वो पंछी,
गुप-चुप, कल फिर गाएंगे,
ये वक्त, ये दरख्त!
गीत वही बासंती, झूम-झूम कल फिर गाएंगे!
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"बसंत के दरख्त" (भाग-1) इस लिंक पर पढ़ें "बसंत के दरख्त" भाग-1
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- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday, 21 December 2018

दृष्टि-पथ

इस दृष्टि-पथ से, तुम हुए थे जब ओझल...

धूमिल सी हो चली थी संध्या,
थम गई थी, पागल झंझा,
शिथिल हो, झरने लगे थे रज कण,
शांत हो चले थे चंचल बादल....

इस दृष्टि-पथ से, तुम हुए थे जब ओझल...

सिमट चुकी थी रश्मि किरणें,
हत प्रभ थे, चुप थे विहग,
दिशाएं, हठात कर उठी थी किलोल,
दुष्कर प्रहर, थी बड़ी बोझिल....

इस दृष्टि-पथ से, तुम हुए थे जब ओझल...

खामोश हुई थी रजनीगन्धा,
चुप-चुप रही रातरानी,
खुशबु चुप थी, पुष्प थे गंध-विहीन,
करते गुहार, फैलाए आँचल....

इस दृष्टि-पथ से, तुम हुए थे जब ओझल...

बना रहा, इक मैं आशावान,
क्षणिक था वो प्रयाण,
किंचित फिर विहान, होना था कल,
यूँ ही तुम, लौट आओगे चल...

इस दृष्टि-पथ से, तुम हुए थे जब ओझल...

Monday, 20 June 2016

तुम्हें क्या

तुम्हें क्या.....?
लेकिन तुम्हें क्या, तुम्हें क्या, तुम्हें क्या...?

जाने किन एहसासों के तले दबा हूँ,
जन्मों के अंजान बंधन से हर पल जुडा हूँ,
संवेदनाओं के बूँदों से हरदम रीता हूँ,
बादल हूँ भीगा सा हर क्षण यूँ ही बरसा हूँ
सावन अंजाना सा, एकाकी संध्या वेला हूँ.........

लेकिन तुम्हें क्या, तुम्हें क्या, तुम्हें क्या...?

लहराते करुणा का अगम्य सागर हूँ,
अंजाने स्वर वेदना के जन्मों से रचता हूँ,
मन के प्रस्तर कोलाहल में खोता हूँ,
सागर खारा हूँ प्यासा हर क्षण यूँ ही रहता हूँ,
क्षितिज विशाल सा, एकाकी संध्या वेला हूँ........

लेकिन तुम्हें क्या, तुम्हें क्या, तुम्हें क्या...?

Tuesday, 5 April 2016

यादें

प्रशस्त हो रही सामने संथ्या जीवन की,
कुछ भीनीं यादें ख्यालों में पल रही सपनों सी,

सपने ही होते वो जो सच ना बन पाते,
बोझल होती साँसों मे कभी खुश्बु बिखराते,
बैठे-बैठे उन आँखो में आँसू भर आते,
रिश्ते ही तो हैं वे भी जो अपने ना बन पाते!

संथ्या जीवन की पल-पल प्रशस्त होते ही जाते....,

इक सुखी फूल किताबों में कहीं गुम सी,
यादों में अबतक वो, चुभती मन में काटों सी,
सिमट आई यादें वो साँसों में बन कंपन सी,
पंखुड़ियाँ बिखर रही, अब उन सूखे फूलों की!

प्रशस्त हो रही हर पल सामने संध्या जीवन की.....
कुछ भीनी-भीनी यादें संग चल रही सपनों सी........

Thursday, 3 March 2016

ध्रुव सा यह स्मृति क्षण

ढ़लता सांध्य गगन सा जीवन!

क्षितिज सुधि स्वप्न रँगीले घन,
भीनी सांध्य का सुनहला पन,
संध्या का नभ से मूक मिलन,
यह अश्रुमती हँसती चितवन!

भर लाता ये सासों का समीर,
जग से स्मृति के सुगन्ध धीर,
सुरभित  हैं जीवन-मृत्यु  तीर,
रोमों में पुलकित  कैरव-वन !

आदि-अन्त दोनों अब  मिलते,
रजनी दिन परिणय से खिलते,
आँसू हिम के सम कण ढ़लते,
ध्रुव सा है यह स्मृति का क्षण!

Tuesday, 23 February 2016

यादों मे ढ़ल रही शाम

रुत शाम की आज फिर से घिर आई,
घटाएँ यादों की घिरकर, फिर मन पे हैं छाई,
ढूंढती हैं नजरे अब दूर तलक,
ये फैली है आज कैसी मीलों तक तन्हाई।

मन बावरा भ्रमर सा उड़ रहा अब,
बाग की हर कली से पूछता उनका पता बस,
सिमट रही घुंघट मे हर कली,
मन भ्रमर उदास मलिन हो रहा अब।

कतारों में जल गईं हैं अब हर तरफ रौशनी सी,
जल रही जो मेरे लिए, है वो दीप कौन सी, 
ढ़ल रही सांझ मन मे टीस लिए,
यादों में ढ़ल रही ये घड़ी उदास सी।

शाम कुछ यहाँ कुछ वहाँ

हुई है शाम दोनो तरफ, कुछ यहाँ भी और वहाँ भी,
पल रहे अरमान दोनों तरफ, इक यहाँ और इक वहाँ भी,
सिलसिले तन्हाईयों के अब हैं,
 कुछ यहाँ भी और कुृछ वहाँ भी।

इक सपना पल रहा यहाँ, एक पल रहाँ वहाँ भी,
नींद आँखों से है गुमशुदा, कुछ यहाँ और कुछ वहाँ भी,
धड़कनें की जुबाँ अब बेजुबाँ हैं,
 कुछ यहाँ भी और कुृछ वहाँ भी।

ख्वाब आँखों मे पल रहे हैं, कुछ यहाँ और कुछ वहाँ भी।
बजती है मन में शहनाईयाँ, अब यहाँ और वहाँ भी,
गीत साँसों मे अब बज रही है,
 कुछ यहाँ भी और कुृछ वहाँ भी।

कतारें रौशनी की अब, कुछ यहाँ भी कुछ वहाँ भी।
इंतजार उस पल का, अब यहाँ भी वहाँ भी,
शाम ढल रही अब तुम बिन,
 कुछ यहाँ भी और कुृछ वहाँ भी।

Saturday, 13 February 2016

संध्या प्रेम

संध्या दिन की बाहों में अटकी सी,
जाने की विवश रुकने की चिन्ता में भटकी सी,
मंद पवन रोकती राहें लट सहलाती संध्या की।

संध्या की सासें प्रीत मे अटकी सी,
धीमी धवल मद्धिम रौशन राहों मे भटकी सी,
चंचला रात्रि संध्या प्रेम में डूबी मदमाई सी।

संध्या स्वप्न सम सुंदर चटकी सी,
अब डूब रही रात की आगोश में मतवाली सी,
रूप-मधु रात्रि की संध्याप्रीत मे निखरी सी।

Saturday, 6 February 2016

जीवन सांध्य प्रहर

उमर अवसान की ओर अग्रसर,
मद्धिम हो रहा उफनते ज्वार का आवेग,
आँखों पर छा रहा हल्का सा धुंधला धीरे धीरे,
अवसान की संध्या का मैं करता मनुहार।

जीवन शिला यह पिघल रहा अब,
भरोसा खुद की सामर्थ पर नही हो रहा अब,
अकड़ मासपेशियाँ की ढ़ीली पड़ रही धीरे-धीरे,
फूट जाए कब कांच का घट करता विचार।

अधूरी छूट जाए न कोई कहानी,
टूट जाए न इरादों वादों की कोई जुवानी,
यह घुटन यह यातना हर पल सहता मैं धीरे-धीरे,
सांध्य प्रहरी की नक्षत्र का मै करता मनुहार। 

Sunday, 17 January 2016

शाम के स्वर

शाम के स्वर अब तक थके नही,
इन सुरमई लम्हों के कदम अभी रूके नहीं,
साधना के स्वरों से पुकारती ये तुम्हे।

ये लम्हे हैं सुनहरी चंपई शाम के,
गुजरते क्षितिज पर इस तरह,
जैसे सृष्टि के हर कण से,
मिलना चाहते क्षण भर ये।

तुम भी इनसे मिलने आ जाओ,
प्रीत की रीत वही तुम भी निभा जाओ।

ये संध्या है सुरमई मदहोशियों के,
अनथक छेड़ रहे सुर इस तरह,
जैसे धरा के कण कण मे,
भरना चाहते मीठे स्वर ये।

तुम भी धुन कुछ इनसे ले लो,
प्रीत के गीत वही तुम भी सुना जाओ।

साधना के स्वरों से रातों के तम हर जाओ ।