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Wednesday 28 August 2019

तपिश

रह गई है, अब भी बाकी,
इस दिल में,
एक तपिश सी साकी!

बेमेल से हैं, विचारों के मेले,
धर्म के, अनर्थक झमेले,
रक्तिम होते, ये अन्तहीन उन्माद,
थमते नहीं, झूठ के विवाद!
गुजारी हैैं सदियाँ,
इन विवादों के दरमियाँ,
रक्तरंजित होते, देखी हैं गलियााँ,
धर्म की आड़ में,
कट गए कितने ही गले,
विसंगति धर्म की,
लेकिन, कहाँ इतनी रक्त से धुले?
आज भी है बाकि,
इसमें, अधूरी प्यास खून की!

सो, रह गई है अब भी बाकी,
इस दिल में,
एक तपिश सी साकी!

लाशों के ढ़ेर पर, हैं हम खड़े,
धर्म के नाम, हैं हम लड़े,
है कुछ ठेकेदारों की ये साझेदारी,
अक्ल हमारी गई है मारी,
हैं बस वो ही प्यारे!
रक्त पीते हैं जो हमारे,
उनकी राजनीति, के ये खेेेल सारे
चलते हैं लाश से,
जिंदगानियों की सांस से,
साजिशें धर्म की,
लेकिन, हम कहाँ समझ सके!
है उनकी बातों में,
सड़ान्ध, गलते हुए लाशों की!

सो, रह गई है अब भी बाकी,
इस दिल में,
एक तपिश सी साकी!

खून के घूँट, यूँ पी लेता हूँ मैं,
जीने को, तो जीता हूँ मैं,
तर्कों-कुतर्कों, से होकर असहज,
करते हुए खुद को सहज,
उम्मीदों के सहारे!
सदियों, हैं हमने गुजारे,
काश! मिट जाते ऐसे धर्म सारे,
बांटते हैं जो दिलों को,
दिग्भ्रमित करते हैं हमको!
मानव धर्म की,
हम महज कल्पना ही कर सके!
नींद में ही देखे,
सपने! समरस समाज की!

सो, रह गई है अब भी बाकी,
इस दिल में,
एक तपिश सी साकी!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Thursday 31 August 2017

स्वमुल्यांकण


सब कुछ तो है यहाँ, मेरा नहीं कुछ भी मगर!

ऊँगलियों को भींचकर आए थे हम जमीं पर,
बंद थी हथेलियों में कई चाहतें मगर!
घुटन भरे इस माहौल में ऊँगलियां खुलती गईं,
मरती गईं चाहतें, कुंठाएं जन्म लेती रहीं!

यहाँ पलते रहे हम इक बिखरते समाज में?
कुलीन संस्कारों के घोर अभाव में,
मद, लोभ, काम, द्वेष, तृष्णा के फैलाव में,
मुल्य खोते रहे हम, स्वमुल्यांकण के अभाव में!

जाना है वापस हमें ऊँगलियों को खोलकर,
संस्कारों की बस इक छाप छोड़कर,
ये हथेलियाँ मेरी बस यूँ खुली रह जाएंगी,
कहता हूँ मैं मेरा जिसे, वो भी न साथ जाएगी!

Thursday 18 February 2016

सपनों के भारत को लगी नजर

मेरे सपनों के भारत को लग गई किसकी नजर?

सोंच हो चुकी है दूषित आज सत्तालोलुपों की,
सत्ता के भूखे उस महा दानव की,
साधते स्वार्थ अपना रोपकर वृक्ष वैमनस्य की।

महादानव हैं वो पर दाँत नही दिखते उसके,
खतरनाक विषधर विष भरे सोंच उनके,
दूषित कर देते ये सोंचविचार निरीह भोले मानस के।

चंद पैसों की खातिर बिक जाते यहाँ ईमान,
देश समाज धर्म का फिर कहाँ ध्यान,
आम जन मरे या जले, बढ़ता रहे इनका सम्मान।

सत्ता लोलुपता इनकी देशभक्ति से ऊपर,
देश की बदहाली, दुर्दशा से ये बेखबर,
खुशहाल आवो हवा को लग गई इनकी बुरी नजर।

मेरे सपनों के भारत को लग गई किसकी नजर?