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Friday 27 November 2020

जन्मदिन- एक शुभकामना

स्निग्ध छटा सी, स्वप्निल!
मने निरंतर, जन्म-दिवस यह, 
स्वप्न सरीखी स्नेहिल!

अतुल्य स्नेह मिले,
भार्या, भाई-बन्धु, स्वजन, पुत्रजनों से,
कोटि-कोटि आशीष मिले, 
मात-पिता, गुरुजन, श्रेष्ठजनों से,
गाएं सब हिलमिल!

स्निग्ध छटा सी, स्वप्निल!
मने निरंतर, जन्म-दिवस यह, 
स्वप्न सरीखी स्नेहिल!

नवीन विहान हो,
कल्पतरू सा, जीवन के ये पल खिले,
जगमग हो, धूमिल सी संध्या,
विघ्न-विहीन, समुनन्त राह मिले,
रातें हों झिलमिल!

स्निग्ध छटा सी, स्वप्निल!
मने निरंतर, जन्म-दिवस यह, 
स्वप्न सरीखी स्नेहिल!

उम्र चढ़े, आयुष बढ़े,
खुशी की, इक छाँव, घनेरी हो हासिल,
मान बढ़े, नित् सम्मान बढ़े,
धन-धान्य बढ़े, आप शतायु बनें,
आए ना मुश्किल!

स्निग्ध छटा सी, स्वप्निल!
मने निरंतर, जन्म-दिवस यह, 
स्वप्न सरीखी स्नेहिल!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)
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HAPPY BIRTHDAY

Wednesday 8 August 2018

पड़ाव

स्नेहिल से कितने पड़ाव, और तय करेंगे हम?

चलो तय कर चुके, यह भी पड़ाव हम,
अब न जाने, ले जाए कहाँ ये बढते कदम!
भले ही ये फासले, कुछ हो चले हैं कम,
गंतव्य की ओर, जरा बढ़ चले हैं गम,
छोड़ आए है पीछे, यादों के वो घनेरे घन!

डोर रिश्तों के ये, खींचते हैं मेरे कदम,
यूं ही पड़ाव पर, रिश्तों में बंध गये थे हम!
भावनाओं में, थोड़े से बह गए थे हम,
तोड़ूंगा कैसे, ये भावनाओं के बंधन,
उम्र भर खीचेंगे, स्नेह के ये प्यारे से वन!

नये से पड़ाव पर, किसी से जुड़ेंगे हम,
अंजाने से शक्ल में, जब बेगाने से होंगे हम!
बरस ही जाएंगे, यादों के वो घनेरे घन,
कुछ पल भीग लेंगे, उन राहों पे हम,
मुड़-मुड़ के पीछे, यूं ही देखा करेंगे हम!

स्नेह के मोहक पड़ाव, कैसे छोड़ पाएंगे हम?

Saturday 26 March 2016

संबंधों का कर्ज मोक्ष पर भारी

धागे ये संबंधों के जुड़े स्नेह की गांठो से,
कब कैसे जुड़ जाते ये बंधन साँसों की झंकारों से,
ममतामयी स्पर्श स्नेहिल मधुर इन गाँठों का,
धागे ये कच्चे पर बंधन अटूट ये जन्मों-जन्मों का।

अनगिनत संबंध जीवन के भूले बिसरे से,
जीवन की आपाधापी में तड़पते कुचले-मसले से,
विरह की टीस सी उठती फुर्सत के क्षण में,
गतिशीलता जीवन की भारी स्नेह, दुलार, ममता पे।

आधार स्तम्भ जीवन के, संबंधों के दायरे यही,
कितने ही स्नेहमयी गोदों में नवजात मुस्कुराते यहीं,
कर्ज भारी इन संबंधों का ढ़ोते जीवन भर यहीं,
क्या उरृण हो पाऊँगा इस कर्ज से, मैं सोचता यही?

कर्ज इस बंधन का शायद जीवन पर है भारी,
जन्मों का यह चक्र मानव के कर्ज चुकाने की तैयारी,
गरिमामयी संबंधों को फिर से जीने की यह बारी,
मोह संबंधों के स्नेहिल बंधन के मोक्ष पर है मेरी भारी।