मिल आना, तुम भी, उन तप्त शिलाओं से!
जब मैं मिला था, कुछ सख्त थी शिला,
धूप में जलकर, अंगारों सी कुछ तप्त थी शिला,
न था गम, उसे कोई, न था कोई गिला,
स्वागत में मेरे, बाहें पसारे, वो मुझसे मिला!
मिल आना, तुम भी, उन तप्त शिलाओं से!
पली थी इक नागफनी, उसके अंक में,
काँटे दंश के, चुभोती वो रही, खिल कर संग में,
निरंतर सहती रही, यातना उस दंश में,
मगर, मुझे हँसती वो मिली, उसी के संग में!
मिल आना, तुम भी, उन तप्त शिलाओं से!
बना था मैं साक्षी, शिला के सूकर्म का,
कर्म-साक्षी खुद थी शिला, प्रकृति के धर्म का,
उपांतसाक्षी मैं बना, धरम के मर्म का,
विषम पल में, पहनी मिली गहना शर्म का!
मिल आना, तुम भी, उन तप्त शिलाओं से!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
जब मैं मिला था, कुछ सख्त थी शिला,
धूप में जलकर, अंगारों सी कुछ तप्त थी शिला,
न था गम, उसे कोई, न था कोई गिला,
स्वागत में मेरे, बाहें पसारे, वो मुझसे मिला!
मिल आना, तुम भी, उन तप्त शिलाओं से!
पली थी इक नागफनी, उसके अंक में,
काँटे दंश के, चुभोती वो रही, खिल कर संग में,
निरंतर सहती रही, यातना उस दंश में,
मगर, मुझे हँसती वो मिली, उसी के संग में!
मिल आना, तुम भी, उन तप्त शिलाओं से!
बना था मैं साक्षी, शिला के सूकर्म का,
कर्म-साक्षी खुद थी शिला, प्रकृति के धर्म का,
उपांतसाक्षी मैं बना, धरम के मर्म का,
विषम पल में, पहनी मिली गहना शर्म का!
मिल आना, तुम भी, उन तप्त शिलाओं से!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (17-06-2019) को "पितृत्व की छाँव" (चर्चा अंक- 3369) (चर्चा अंक- 3362) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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पिता दिवस की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सादर आभार ।
Deleteबेहतरीन रचना आदरणीय
ReplyDeleteसादर
सादर आभार आदरणीया। किसी पत्थर के पास जाकर उसे अवश्य ही महसूस करें । अलग ही अनुभूति होती है।
Deleteबहुत बढ़िया
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीय ओंकार जी।
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