Tuesday, 22 March 2016

रुत मिलने की आई (होली विशेष)

रुत मिलने की आई आँचल को लहराने दो।

बरसी है आग इन घटाओं से आज,
छलके हैं जाम इन बूदों के साथ,
भीगा भीगा सा तन सुलग रहा क्युँ आज,
बहका सा मन होली में आँचल को भीग जाने दो।

रुत मिलने की आई जुल्फों को बिखर जाने दो।

मस्त हवाएँ गुजर रही हैं तुमको छूकर,
बिखरे है ये लट चेहरे पर झूमकर,
आँखों में उतरा है जाम आज छलक कर,
उलझा हूँ मैं जुल्फो में जाम नजरों से पी लेने दो।

रुत मिलने की आई आज मुझको बहक जाने दो।

बेमतलब कोई बात बने

बेमतलब ही आँचल स्नेह का मिल जाए तब कोई बात बने!

वो कहते कुछ अपनी कह लूँ तब कोई बात बने!
साथ कहाँ कोई देता जग में यूँ ही,
यूँ बिन मतलब के बात यहाँ करता क्या कोई?
सबकी अपनी धुन सबकी अपनी राह,
मतलब की है सब यारी मतलब की सब बात,

बेमतलब की बातें दिल की कोई सुन ले तब बात बने।

वो कहते दो चार कदम मैं चल लूँ तब साथ बने!
क्या कदमों का चलना ही जीवन है?
दो चार कदम संग ढ़लना ही क्या जीवन है?
सबकी अपनी चाल सबका अपना रोना है,
जीवन बस इक राग, साथ-साथ जिसको गाना है।

बेमतलब ही कोई संग गीत गुनगुना ले तब कोई बात बने।

बेमतलब ही साया प्यार का मिल जाए तब कोई बात बने!

एहसास एक गहराता हर पल

एहसास एक गहराता हर पल,
निर्जन तालाब में जैसे ठहरा शांत जल,
खामोशी टूटती तभी जब फेकता कोई कंकड़।

कभी कभी ये एहसास उठते मचल,
वियावान व्योम मे जैसे घुमरता मंडराता बादल,
खामोशी टूटती है तभी जब लहराता उसका आँचल।

एहसासों के पर कभी आते निकल,
तेज हवा के झौंकों मे जैसे पत्तियों के स्वर,
खामोशी टूटती है तभी जब छा जाता है पतझड़।

आशाएँ एहसास की कितनी विकल,
सपनों की नई दुनियाँ मे रोज ही आता निकल,
खामोशी टूटती है तभी जब बिखरते सपनों के शकल।

एहसास एक गहराता हर पल........,!

Monday, 21 March 2016

माँ का पुत्र विछोह

रुकी हुई सांसें उसकी फिर से कब चल पड़ी पता नहीं?

जीर्ण हो चुकी थी वो जर्जर सी काया,
झुर्रियाँ की कतारें उभर आईं थी चेहरे पर,
एकटक ताकती कहीं वो पथराई सी आँखें,
संग्याहीन हो चुकी थी उसकी संवेदनाएँ,
साँसों के ज्वार अब थमने से लगे थे उसके,
जम सी रही थी रक्त धमनियों मे रुककर।

ऐसा हो भी तो क्युँ न.............!
नन्हा सा पुत्र बिछड़ चुका था गोद से उस माता की!

सहन कहाँ कर पाई विछोह अपने पुत्र की,
विछोह की पीड़ा हृदय मे जलती रही ज्वाला सी,
इंतजार में उसके बस खुली थी उसकी आँखें,
बुदबुगाते थे लब रुक-रुक कर बस नाम एक ही,
विश्वास उस हृदय में थी उसके लौट आनेे की।

ऐसा ही होता है माँ का हृदय..........!
ममत्व उस माँ की अब तक दबी थी उस आँचल ही!

ईश्ववर द्रविभूत हुए उस माता की विलाप सुनकर,
एक दिन लौट आया वही पुत्र माँ-माँ कहकर,
आँखों मे चमक वही वापस लौट आई फिर उसकी,,
नए स्वर मे फिर उभरने लगे संवेदनाओं के ज्वर,
आँचल में दबा ममत्व फूट पड़ा था अपने पुत्र पर।

रुकी हुई साँसें उसकी फिर से कब चल पड़ी पता नहीं?

विरहन की होली

फिजाओं में हर तरफ धूल सी उड़ती गुलाल,
पर साजन बिन रंगहीन चुनर उस गोरी के।

रास न आई उसको रंग होली की,
मुरझाई ज्यों पतझड़ में डाल़ बिन पत्तों की,
रंगीन अबीर गुलाल लगते फीकी सी,
टूटे हृदय में चुभते शूल सी ये रंग होली की।

वादियों में हर तरफ रंगो की रंगीली बरसात,
लेकिन साजन बिन कोरी चुनर उस विरहन के।

कोहबर में बैठी वो मुरझाई लता सी,
आँसुओं से खेलती वो होली आहत सी,
बाहर कोलाहल अन्दर वो चुप चुप सी,
रंगों के इस मौसम में वो कैसी गुमसुम सी।

कह दे कोई निष्ठुर साजन से जाकर,
बेरंग गोरी उदास बैठी विरहन सी बनकर,
दुनियाँ छोटी सी उसकी लगती उजाड़ साजन बिन,
धानी चुनर रंग लेती वो भी, गर जाती अपने साजन से मिल।

एक टुकड़ा नीरद

एक टुकड़ा नीरद, मीनकेतु सा छाया मन पर,
चातक मन बावरा उस नीरद का,
उमर घुमर वो नीरद वापस आता इस मन पर,
मनसिज सा बूँद बन बिखरा ये मन पर।

आज कहीं गुम वो मनसिज नीरद,
परछाई खोई कहीं बेचैन सी झील मे उसकी,
हलचल इस जल में आज कितनी,
सूख चुकी है शायद उस नीरद की बूँद भी?

नीरद आशाओं के कल फिर वापस आएंगे,
मन के झील पर ये फिर झिलमिलाएंगे,
तस्वीर नीरद की नई उभरेगी परछाई बन,
मनसिज नीरद की बूँदे फिर बरस जाएंगे मन पर।

अधूरे सपने

ठहरे से जीवन में छोटी सी खुशी के पल ये अधूरे सपने.....!

रात के अंधेरे रंगीन सपनों से पटे हुए,
दिन के उजाले संकलित भविष्य के विराट मार्ग।

दोनो तो सपने ही हैं गर मानों तो,
एक बंद आँखों से तो दूसरी खुली आँख,
अधूरी आंकांक्षाओं के बीज लिए ये रात दिन के मार्ग।

बस पनपेगा कब ये बीज, मन सोचता,
समझौते पर विवश वो, रात दिन एक करता,
बची रह जाती फिर भी जीवन में सपनों की कुछ शाम ।

ठहरे से जीवन में छोटी सी खुशी के पल ये अधूरे सपने.....!

Sunday, 20 March 2016

भटकता मन

भीड़ मे इस दुनियाँ की,
एकाकी सा भटकता मेरा मन......

तम रात के साए में,
कदमों के आहट हैं ये किसके,
सन्नाटे को चीरकर,
ज उठे हैं फिर प्राण किसके।

चारो तरफ विराना,
फिर धड़कनों में बजते गीत किसके,
मन मेरा जो आजतक मेरा था,
अब वश में किस कदमों की आहट के।

टटोलकर मन को देखा तब जाना...

वो तो मेरा एकाकी मन ही है
भटक रहा है जो इस रात के विराने में,
वो तो हृदय की गति ही मेरी है,
धड़क रही जो बेलगाम अश्व सी अन्तः में।

भीड़ मे इस दुनियाँ की,
एकाकी सा भटकता मेरा मन......

दो पुतलियाँ आँखों की

आँखों की ये दो पुतलियाँ,
परिभाषित करती हैं प्रेम को जैसे,
जीवन भर मिल पाते नही एक दूसरे से,
विस्मयकारी हैं तारतम्य इन दोनों के।

एक के बिन रहती अधूरी दूसरी,
नैन सुन्दर से कहलाते दोनों मिलकर ही,
पूर्णता नजरों की दो पुतलियाँ मिल कर ही 
आभास गहराई का दो पुतलियों से ही।

चलते है एक स्वर में दोनो ही,
साथ साथ खुलते ये बंद होते साथ ही,
जीवन के सुख-दुख की घड़ियाँ गिनते साथ ही,
नीर छलकते दो पुतलियो में साथ ही।

अलग-अलग पर वो अंजान नही,
दूरी दोनों में पर नजरों में मतभेद नहीं,
शिकवा शिकन शिकायत इनकी लबों पर नहीं,
एहसास परस्पर प्रेम के ये मरते नही।

सहमी सहमी सी खुशी

बरसों बीते, एक दिन खुशी को अचानक मैने भी देखा था राह में,
शक्ल कुछ भूली-भूली, कुछ जानी-पहचानी सी लगी थी उसकी,
दिमाग की तन्तुओं पर जोर डाला, तो पहचान मिली उस खुशी की,
बदहवास, उड-उड़े़े होश, माथे पे पसीने की बूंदे थी छलकी सी।

उदास गमगीन अंधेरों के साए में लिपटी, गुमसुम सी लगती थी वो,
इन्सानों की बस्ती से दूर, कहीं वीहट में शायद गुम हो चुकी थी वो,
खुद अपने घर का पता ढ़ूढ़ने, शायद जंगल से निकली थी वो,
नजरें पलभर मुझसे टकराते ही, कहीं कोने मे छुपने सी लगी थी वो।

सहमी-सहमी सी आवाज उसकी, बिखरे-बिखरे से थे अंदाज,
उलझे-उलझे लट चेहरे पे लटकी, जैसे झूलती हुई वटवृक्ष के डाल,
कांति गुम थी उसके चेहरे से, कोई अपना जैसे बिछड़ा था उससे,
या फिर किसी अपनों नें ही, दुखाया था दिल उस विरहन के जैसे।

इंसानों की बस्ती में वापस, जाने से भी वो घबराती थी शायद,
पल पल बदलते इंसानों के फितरत से, आहत थी वो भी शायद,
आवाज बंद हो चुकी थी उसकी, कुछ कह भी नही पाती वो शायद,
टूटकर बिखरी थी वो भी, छली गई थी इन्सानों से वो भी शायद।

व्यथा देख उसकी मैं, स्नेहपूर्वक विनती कर अपने घर ले आया,
क्षण भर को आँखे भर आई उसकी, पर अगले ही क्षण यह कैसी माया,
अपनों मे से ही किसी की मुँह से "ये कौन है?" का स्वर निकल आया,
विरहन खुशी टूट चुकी थी तब, जंगल में ही खुश थी वो शायद....!