पल-पल प्रबल आघात करती ये निरीह संवेदनाएँ ...
करवट ली है संवेदनाओं ने आज फिर से,
झकझोर दिया हो दरिया को मछवारे ने जैसे,
आँधियों में झूलती हों पत्तियाँ डाल पर जैसे,
मन की शांत झील, झंकृत है लहराकर ऐसे.....
संवेदनाएँ! निरीह, लाचार खुद अन्दर से,
पतली सी काँच कहीं चकनाचूर रखी हों जैसे,
कनारों के धार नासूर सी डस रही हों जैसे,
अंतःकरण हृदय के, लहुलुहान कर गई ये ऐसे....
वश में कहाँ, किसी मानव की ये संवेदनाएँ,
बाँध तोड़ कर बह जाती हो, धार नदी की जैसे,
मगरूर शिलाएँ प्लावित होती हैं इनमें जैसे,
विवश कर गई ये, अंतःमानस के कण-कण ऐसे...
सुख में कभी सम्मोहित करती संवेदनाएँ,
छलक पड़ती हैं फिर आँखों में बूंद-बूंद बनके,
छिरकते हैं मनोभाव कभी तेज कदमों से,
क्या रह पाऊँगा पृथक? मैं इन संवेदनाओं से....?
करवट ली है संवेदनाओं ने आज फिर से,
झकझोर दिया हो दरिया को मछवारे ने जैसे,
आँधियों में झूलती हों पत्तियाँ डाल पर जैसे,
मन की शांत झील, झंकृत है लहराकर ऐसे.....
संवेदनाएँ! निरीह, लाचार खुद अन्दर से,
पतली सी काँच कहीं चकनाचूर रखी हों जैसे,
कनारों के धार नासूर सी डस रही हों जैसे,
अंतःकरण हृदय के, लहुलुहान कर गई ये ऐसे....
वश में कहाँ, किसी मानव की ये संवेदनाएँ,
बाँध तोड़ कर बह जाती हो, धार नदी की जैसे,
मगरूर शिलाएँ प्लावित होती हैं इनमें जैसे,
विवश कर गई ये, अंतःमानस के कण-कण ऐसे...
सुख में कभी सम्मोहित करती संवेदनाएँ,
छलक पड़ती हैं फिर आँखों में बूंद-बूंद बनके,
छिरकते हैं मनोभाव कभी तेज कदमों से,
क्या रह पाऊँगा पृथक? मैं इन संवेदनाओं से....?