Thursday, 26 January 2017

उठो देश

उठो देश! यह दिवस है स्वराज का, गण के तंत्र का,
पर क्युँ लगता? यह गणराज्य हमारी है बिखरी सी,
जंजीरों में जकरा है मन, स्वाधीनता है खोई सी,
पावन्दियों के हैं पहरे, मन की अभिलाषा है सोई सी,
अंकुश लगे विचारों पे, कल्पनाशीलता है बंधी सी,
फिर क्युँ न तोड़कर बंधन, रच ले अपना गणतंत्र हम?

आओ सोचे मिलकर, स्वाधीन बनाएँ मन अपना हम,
खींच दी थी किसी ने, लकीरें पाबन्दियों की इस मन पर
अवरुद्ध था मन का उन्मुक्त आकाश सरजमीं पर,
हिस्सों में बट चुकी थी कल्पनाशीलता कहीं न कहीं पर,
विवशता कुछ ऐसा करने की जो यथार्थ से हो परे,
ऐसे में मन करे भी तो क्या? जिए या मरे?

उन्मुक्त मन, आकर खड़ा हो सरहदों पे जैसे,
कल्पना के चादर आरपार सरहदों के फैलाए तो कैसे,
रोक रही हैं राहें ये बेमेल सी विचारधारा,
भावप्रवणता हैं विवश खाने को सरहदों की ठोकरें,
देखी हैं फिर मैने विवशताएँ आर-पार सरहदों के,
न जाने क्यूँ उठने लगा है अंजाना दर्द सीने में..

उठो देश, जनवरी 26 फिर लिख लें अपने मन पर हम..

Wednesday, 25 January 2017

यादों की बस्ती

है ख्वाबों की वो, बनती बिगरती इक छोटी सी बस्ती,
कुछ बिछड़ी सी यादें उनकी,अब वहीं हैं रहती......

है अकेली नहीं वो यादें, संग है उनके वहीं मेरा मन भी,
रह लेता है कोने में पड़ा, वहीं कहीं मेरा मन भी,
भूली सी वो यादें, घंटो तलक संग बातें हैं मुझसे करती,
बस जाती है वो बस्ती, बहलता हूँ कुछ देर मैं भी।

यूँ हीं कभी हँसती, तो पल भर को कभी वो सँवरती,
यूँ टूट-टूटकर कर कभी, बस्ती में वो बिखरती.....

हर तरफ बिखरी है उनकी यादें, बिखरा है मेरा मन भी,
संभाले हुए वो ही यादें, बैठा वहीं है मेरा मन भी,
टूटी हुई वो यादें, सुबक-सुबक कर बातें मुझसे करती,
फिर ख्वाब नए लेकर, सँवरती है वो ही बस्ती।

आँखों से छलकती, कभी कलकल नदियों सी बहती,
यूँ ही कभी विलखती, बहती वो यादों की बस्ती...

चाहत के सिलसिले

ये जादू है कोई! या जुड़ रहे हैं कोई सिलसिले?....

बेखुदी में खुद को कहीं, अब खोने सा लगा हूँ मैं,
खुद से हीं जुदा कहीं रहने लगा हूँ मैं,
कुछ अपने आप से ही अलग होने लगा हूँ मैं,
काश! धड़कता न ये मन, खोती न कही दिल की ये राहे,
काश! देखकर मुझको झुकती न वो पलकें.....

ये कैसा है असर! क्या है ये चाहत के सिलसिले?...

अंजान राहों पे कहीं, भटकने सा लगा हूँ मैं,
भीड़ में तन्हा सा रहने लगा हूँ मैं,
या ले गया मन कोई, अंजान अब तक हूँ मैं,
काश! पिघलता न ये मन, डब-डबाती न मेरी ये आँखें,
काश! अपनापन लिए कुछ कहती न वो पलकें.....

ये रिश्ता है कोई? या है ये जन्मों के सिलसिले?.....

वक्त ठहरा है वहीं, बस बीतने सा लगा हूँ मैं,
जन्मों के तार यूँ ही ढूंढने लगा हूँ मैं,
या डूबकर उन आँखों में ही, उबरने लगा हूँ मैं,
काश ! तड़पता न ये मन, अनसुनी होती न मेरी ये आहें,
काश! सपनो के शहर लिए चलती न वो पलकें.....

ये कैसी है चाहत? या हसरतो के हैं ये सिलसिले?...

Thursday, 19 January 2017

टहनी

अनुराग के मंजर टहनी पर,
खिल आई थी फिर खुश्बू लेकर,
मिला हो जैसे उस टहनी को,
किसी कठिन तपस्या का प्रतिफल।

घनीभूत हुई थी रूखे तन पर,
उमरते आशाओं के बादल,
फूट पड़े थे जैसे इच्छाओं के स्वर,
अन्त: तक भीगा मन का मरुस्थल।

झूम उठी वो टहनी मंजराकर,
महक उठी थी फिजाएँ,
उसकी भीनी सी खुश्बू लेकर,
स्वागत मे उसने फैलाए थे आँचल।

रूप श्रृंगार यौवन का लेकर,
हरित हुई थी वो टहनी,
सृष्टि मुस्काई मुखरित होकर,
मंजर मंजर खिल आए थे मधुफल।

क्षण आकर्षण के बिखेरकर,
मुरझाई अब वो टहनी,
अगाध अनुराग के खुश्बू देकर,
प्रतिफल मे पाया था सूना सा आँचल।

Tuesday, 17 January 2017

पलने दो ख्वाब

चुप से हैं कुछ ख्वाब, कुछ इनको कह जाने दो....

गहरी सी दो आँखों में, ख्वाबों को पलने दो,
कुछ रंग सुनहरे मुझको, ख्वाबों मे भर लेने दो,
तन्हाई संग मुझको, इन पलकों में रह लेने दो,
बुत बना बैठा हूँ, ख्वाब जरा बुन लेने दो....

गहरी सी हैं दो आँखें, डूब न जाए ख्वाब मेरे,
इन चंचल से दो नैनों में, टूट न जाए ख्वाब मेरे,
पलकें यूँ न मूंदो, कहीं सो जाए न ख्वाब मेरे,
ख्वाब नए हरपल, जरा साँसों में पिरोने दो.....

सतरंगी से कुछ ख्वाब, इन्द्रधनुष बन छाने दो,
कहीं टूटे ना ये ख्वाब, इन्हें हकीकत बन जाने दो,
नन्हे-नन्हे से ख्वाब, इन्हे खिल कर मुस्काने दो,
फिर देखें हम ख्वाब, आँखों को सहलाने दो....

गुमसुम से हैं कुछ ख्वाब, कुछ इनको कह जाने दो....

Saturday, 14 January 2017

मकर संक्रांति

नवभाव, नव-चेतन ले आई, ये संक्रांति की वेला........

तिल-तिल प्रखर हो रही अब किरण,
उत्तरायण हुआ सूर्य निखरने लगा है आंगन,
न होंगे विस्तृत अब निराशा के दामन,
मिटेंगे अंधेरे, तिल-तिल घटेंगे क्लेश के पल,
हर्ष, उल्लास,नवोन्मेष उपजेंगे हर मन।

धनात्मकता सृजन हो रहा उपवन में,
मनोहारी दृश्य उभर आए हैं उजार से वन में,
खिली है कली, निराशा की टूटी है डाली,
तिल-तिल आशा का क्षितिज ले रहा विस्तार,
फैली है उम्मीद की किरण हर मन में।

नवप्रकाश ले आई, ये संक्रांति की वेला,
अंधियारे से फिर क्युँ,डर रहा मेरा मन अकेला,
ऐ मन तू भी चल, मकर रेखा के उस पार,
अंधेरों से निकल, प्रकाश के कण मन में उतार,
मशाल हाथों में ले, कर दे  उजियाला।

Friday, 13 January 2017

अंजान सी रात

जरा सा चूमकर, उनींदी सी पलकों को,
कुछ देर तक, ठहर गई थी वो रात,
कह न सका था कुछ अपनी, गैरों से हुए हालात,
ठिठक कर हौले से कदम लिए फिर,
लाचार सी, गुजरती रही वो रात रुक-रुककर।

अंजान थी वो, उनींदी स्वप्निल सी आँखें,,
मूँदी रही वो पलकें, ख्वाबों में डूबकर,
न तनिक भी थी उसको, बिलखते रात की खबर,
गुजरती रही वो रात, बस सिसक कर,
मजबूर सी, उनींदी उन पलकों को छू-छूकर।

सुनता कौन उसकी? रात ही तो था वो!
ख्वाब भरने वो चला था, उनींदी आँखों में सबके,
कितने ही पलकों में, उसने संजोई थी उम्मीदें,
दामन था खाली, सुनसान थे उसके सपने,
बेजान सी, सिमटती रही अंधेरों में डूब-डूबकर।

धूमिल हूई थी कहीं, डूबकर अँधेरों में रात,
गया था वो सबको देकर, सुनहले भोर की सौगात,
कंपन दिए थे उसने, धड़कते से हृदय को,
नव प्राण साँसों में भरकर, दी थी नई शुरुआत,
अंजान सी, दिन भर रही पलकों में तैर-तैरकर।

Tuesday, 10 January 2017

संकुचित पल

संकुचित हैं कितने, ये पल आज दिन के,
बातों ही बातों में बीते, कैसे ये पल आज दिन के!

गर होते अंतराल, जो लम्बे से इस पल के,
तुम इठलाती-इतराती, अनथक सी करती फिर बातें,
रोक लेता तुम्हे मैं, उन अवलम्बित से पलों में ,
जिद जल्दी जाने की, तुम हमसे ना करते।

शरद ऋतु में जैसै, कुम्हलाया है ये पल भी,
कुछ कह दो अपने मन की, जाने वाला है ये पल भी,
विस्तार दे दो तुम इनको, देकर धड़कन की गर्मी,
सिमटकर बातों में तेरी, थम जाएगा ये पल भी।

ऐ पल! तू आकर बिखर, ठहर प्रहर दो प्रहर,
आ लेकर मीठी यादें, दे जा कुछ साँसों की सौगातें,
रोक लूँ अपने दिलवर को, बैठा लूँ बाँहें पकड़,
लम्बे हों बातों के पल, पल-पल फिर बीते ना प्रहर।

बिता लूँ मैं जीवन इस पल के, बाहों में तेरे,
क्या जाने फिर मिले ना मिले, ये पल, ये बाहों के घेरे,
सिमटते पलों की परिधि में, आओ हम ऐसे मिले,
जीवन के ये पलक्षिण, बिखरे साँसों संग तेरे।

संकुचित हैं कितने, ये पल आज दिन के,
बातों ही बातों में बीते, कैसे ये पल आज दिन के!

Monday, 9 January 2017

नादान बेचारी

सोच रही वो बेचारी, आखिर भूल हुई क्या मेरी?

यूँ ही घर से निकल गया था वो अन्तर्मुखी,
दर्द कोई असह्य सी, सुलग रही थी उस मन में छुपी!
बिंध चुका था शायद, निश्छल सा वो अन्तर्मन,
अप्रत्याशित सी कोई बात, कर गई थी उसे दुखी!

स्नेह भरा दामन, फैलाया तो था उस अबला ने,
रखकर कांधे पे सर, हाथों से सहलाया भी था उसने,
नादान मगर पढ पाई ना, उसके अन्तर्मन की बातें,
दामन में छोड़ गया वो, बस विरहा की सौगातें!

मन में चोट लगे जो, वो घाव बड़ी दुखदायी,
तन सहलाते मिटे न पीड़ा, नादान समझ ना पाई,
अंजाने में भूल हुई क्या, बस वो जान न पाई,
तोड़कर विश्वास क्यूँ छोड़ चला वो सौदाई!

वो अन्तःमुखी, बाँट सका न पीड़ा कहकर,
निकल पड़ा घर से, मन में ही कोई जख्म भरकर,
राज रही गहराती ही, कोहरे सी खामोशी लेकर,
अब बाट जोहती वो, रुकी सी साँसे लेकर!!

Sunday, 8 January 2017

मन की तलाश

वक्त के साथ आकांक्षाएँ जब मुँह मोड़ने लगे,
इक्षाओं के बादल जब उत्शृंखलता का साथ छोड़ने लगे,
तब जन्म लेने लगती है मन की सृजनशीलता,
ऐसे में व्यस्तताओं के हाथों विवश होने के बावजूद,
कई जरूरतों से बावस्त होने लगता है मन......
और कल्पनाशीलता भरने लगती है दिशाहीन उड़ान....
तब निकल पड़ता है मन कहीं और...
किसी अन्तहीन सी तलाश में...न जाने कहाँ?

उभर आते हैं आँखों में कई रंग जीवन के,
स्मृतिपटल पर उभर उठते हैं कई रूप अंकित होकर,
विशाल पेड़ खड़ी हो जाती हैं कहीं दामन फैलाए,
कभी लताएँ लपेट लेती हैं खुद में समेटकर,
खुद को पाता हूँ कभी अकेला ही अनन्त घाटियों में,
जब पुकारती हैं कहीं से विरानियाँ उन राहों की,
तब मन हो लेता है उन्हीं विरानियों के संग कहीं और,
किसी अन्तहीन सी तलाश में...न जाने कहाँ?

उन खामोश राहों पे मन का बस एक ही संगी,
मैं और मेरी अव्यक्त सृजनात्मक कल्पना छटपटाती सी,
उत्पन्न होते कई मनोभाव कभी फूलों सी खिली,
रंग कई विविध से मन में लिए उन फूलों में भरती रही,
नई आकांक्षाओं की अब फिर खिल उठी है कली,
मन कहीं बह रहा उस शांत समुन्दर की ओर,
न कोई चाह, न कोई तृष्णा, बस तलाशता इक ठौर,
किसी अन्तहीन सी तलाश में...न जाने कहाँ?