Tuesday, 4 April 2017

ऐ कुम्हार

तू ले चल उस ओर मुझे, जहाँ आश पले मन का।

ऐ कुम्हार! रख दे तू चाक पर तन मेरा ये माटी का,
छू ले तू मुझको ऐसे, संताप गले मन का,
तू हाथों से गूंध मुझे, मैं आकार धरूँ कोई ढंग का,
तू रंग दे मुझको ऐसे, फिर रंग चढै ना कोई दूजा,
बर्तन बन निखरूँ मैं, मान बढाऊँ आंगन का।

तू ले चल उस ओर मुझे, जहाँ आश पले मन का।

ऐ कुम्हार! माटी का तन मेरा, कठपुतली तेरे हाथों का,
तू रौंदता कभी गूँधता, आकार कोई तू देता,
हाथों से अपने मन की, कल्पना साकार तू करता,
कुछ गुण मुझको भी दे, मैं ढल जाऊ तेरे ढंग का,
एक हृदय बन देखूँ मैं, कैसा है जीवन सबका।

तू ले चल उस ओर मुझे, जहाँ आश पले मन का।

ऐ कुम्हार! तन मेरा माटी का, क्युँ दुख न ये झेल सका,
सुख की आश लिए, क्युँ ये मारा फिरता,
पिपाश लिए मन में, क्युँ इतना क्षुब्ध निराश रहता,
करुवाहट भरे बोलों से, क्युँ औरों के मन बिंथता,
इक मन तू बना ऐसा, सुखसार जहाँ मिलता।

तू ले चल उस ओर मुझे, जहाँ आश पले मन का।

Sunday, 2 April 2017

पूछूंगा ईश्वर से

सांसों के प्रथम एहसास से,
मृत्यु के अन्तिम विश्वास तक तुम पास रहे मेरे,
पूजा के प्रथम शंखनाद से,
हवन की अन्तिम आग तक तुम पास रहे मेरे,
पर क्युँ टूटा है अब ये विश्वास,
क्युँ छोड़ गए तुम साथ,
अंधियारे में जीवन के उस पार तुम क्युँ साथ नहीं हो मेरे?

जीवन मृत्यु के इस द्वंद में,
धडकनों के मध्य पलते अन्तर्द्वन्द में तुम पास रहे मेरे,
गीतों के उभरते से छंद में,
आरोह-अवरोह के बदलते से रंग मे तुम पास रहे मेरे,
पर क्युँ बदला है अब तुमने राग,
क्युँ छोड़ गए तुम साथ,
जीवन की अन्तर्द्वन्द के उस पार तुम क्युँ साथ नहीं हो मेरे?

अब दोष किस किसका दूँ मैं,
सदैव ईश्वर में करती अनन्त विश्वास तुम पास रहे मेरे,
चन्दन, टीका, टिकली, सिन्दूर से,
टटोलती हर पल हृदय के तार सदा तुम पास रहे मेरे,
पर क्युँ विधाता को न आई ये रास,
क्युँ छोड़ गए तुम साथ,
ईश्वर से पूछूँगा जीवन के उस पार तुम क्युँ साथ नहीं हो मेरे?

Saturday, 1 April 2017

अंजाने में तुम बिन

अंजाने में कुछ पल को यदि तुम्हे भूल भी पाता मैं .....!

खुद ही खुद अकेलेपन में फिर क्या गुनगुनाता मैं!
समय की बहती धार में क्या उल्टा तैर पाता मैं?
क्या दिन को दिन, या रात को रात कभी कह पाता मैं?
अपने साये को भी क्या अपना कह पाता मै?

अंजाने में कुछ पल को यदि तुम्हे भूल भी पाता मैं .....!

सितारों से बींधे आकाश की क्या सैर कर पाता मैं?
सहरा की सघन धूप को क्या सह पाता मैं!
क्या अपने होने, न होने का एहसास भी कर पाता मैं?
अपने जीवित रहने की वजह क्या ढूढता मैं?

अंजाने में कुछ पल को यदि तुम्हे भूल भी पाता मैं .....!

उन लम्हों की दिशाएँ फिर किस तरफ मोड़ता मैं?
देती हैं जो सदाएँ वो पल कहाँ छोड़ता मैं?
क्या उन उजली यादों से इतर मुँह भी मोड़ पाता मैं?
अपने अन्दर छुपे तेरे साए को कहाँ रखता मैं?

अंजाने में कुछ पल को यदि तुम्हे भूल भी पाता मैं .....!

संवेदनहीन

पतंग प्रीत की उड़ती है कोमल हृदयाकाश में,
संवेदनहीन हृदय क्या भर पाएगा इसे बाहुपाश में,
पाषाण हृदय रह जाएगा बस प्रीत की आश में,
मुश्किल होगा प्रीत की डोर का आकाश मे उड़ पाना,
व्यर्थ सा होगा संवेदनाओं के पतंग उड़ाना!

हो चुके हो जब तुम इक पाषाण सा संवेदनहीन,
निरर्थक ही होगा तुमसे प्रीत की कोरी उम्मीद लगाना,
संवेदनाओं के पतंगों को हमें ही होगा समेटना,
असम्भव ही होगा धागे की एक छोर को पकड़े बिना,
प्रीत की पतंग का ऊँचे आकाश में उड़ पाना!

हाँ, पर कोमल सा हृदय हूँ मैं, कोई पत्थर नहीं,
इन कटी पतंगों संग तब तक सिसकेगा ये मेरा मन,
बस उम्मीद की डोर थामे, मैं तुमसे मिलूंगा वहीं,
जग जाए जब संवेदना, वो छोड़ दूजा तुम थाम लेना,
है मुश्किल तुम बिन प्रीत की पतंग उड़ाना!

Friday, 31 March 2017

Thanks Viewers/Readers

Thanks to everyone for overwhelming response and intensive pageview and encouragement given to me to write few nice poems of your choice. 

Please Keep Inspiring....

Thanks again & Regards to all.

Yours only

कोकिल विधा

कहीं गूंज उठा था कोकिल सा स्वर में,
इक काव्य अनसुना सा कोई,
हठात् रुका था राहों में मैं,
जैसे रुका हो बसंत, कहीं अनमना सा कोई।

कहीं ओझल था वो कोयल नजरों से,
गाता वो काव्य अनोखा सा कोई,
चहुँ ओर तकता फिरता मैं,
जैसे प्यासा हो चातक, कहीं सावन हो खोई।

सरस्वती स्वयं विराजमान उस स्वर में,
स्वरों की रागिनी हो जैसे कोई,
नियंत्रित फिर कैसे रहता मैं,
निरंतर स्वरलहरी जब, पल पल बजती हो कोई।

अष्टदिशाएँ खोई उस कोकिल स्वर में,
इन्द्रधनुषी आभा फैला सा कोई,
खींचता सा जा रहा था मैं,
अमिट छाप जेहन पर, उत्कीर्ण कर गया कोई।

कोई काव्य अनूठी सी रची उस स्वर ने,
अलिखित संरचना थी वो कोई,
पूर्ण कर जाता वो काव्य मैं,
वो विधा वो कोकिलवाणी, मुझको दे जाता कोई।

Wednesday, 29 March 2017

क्युँ गाए है घुंघरू!

छुन-छुन रुन-झुन की धुन फिर क्युँ गाए हैं ये घुंघरू.....

कोई आहट पर भरमाए है ये मन क्युँ,
बिन कारण के इतराए है ये मन क्युँ,
कोई समझाए इस मन को, इतना ये इठलाए है क्युँ,
बिन बांधे पायल अब नाचे है ये पग क्युँ,
छुन-छुन रुन-झुन की धुन क्युँ गाए हैं ये घुंघरू.....

कोई कल्पित दृश्य पटल पर उभरे है क्युँ,
अब बिन ऐनक सँवरे है ये मन क्युँ,
कभी उत्श्रृंखल तो, कभी चुपचुप सा ये रहता है क्युँ,
कभी गुमसुम सा कहता कुछ नहीं है क्युँ,
छुन-छुन रुन-झुन की धुन क्युँ गाए हैं ये घुंघरू.....

कोई संग-संग गाए तो ये मन गाए ना क्युँ,
राग कोई छेड़े तो मन इठलाए ना क्युँ,
रिझाए जब मौसम की धुन, मयूर सा मन नाचे ना क्युँ,
बतलाए कोई आहट पर भरमाए ना ये मन क्युँ,
छुन-छुन रुन-झुन की धुन क्युँ गाए ना ये घुंघरू.....

कोई बुत सा ये मन, फिर बन जाए है क्युँ,
दिल की अनसूनी ये कर जाए है क्युँ,
छेड़ मिलन के गीत, फिर नैनों में ये भर जाए है क्युँ,
तन्हा रातों में आहट से भरमाए है ये मन क्युँ,
छुन-छुन रुन-झुन की धुन फिर क्युँ गाए हैं ये घुंघरू.....

Monday, 27 March 2017

हिस्से की जिंदगी

बहुत ही करीब से गुजर रही थी जिंदगी,
कितना कोलाहल था उस पल में,
मगर बेखबर हर कोलाहल से था वो पथिक,
धुन बस एक ही ! अपने मंजिल तक पहुचने की!

मुड़-मुड़कर उसे देखती रही थी जिन्दगी,
पर उसे साँस लेने तक की फुर्सत नहीं,
अनथक कदम अग्रसर थे बस उस मंजिल की ओर,
पल-पल जिंदगी से दूर होते गए उसके कदम।

निराश हतप्रभ अब हो चली थी जिंदगी,
कचनार हो गई हो जैसे सुगंधहीन,
गुलमोहर की कली ज्युँ सूखकर हुई हो कांतिहीन,
प्रगति के पथ पर जिन्दगी से दूर था वो पथिक।

मंजिलों पर वो अब तलाशता था जिंदगी,
हाथ आई सूखी हुई सी कुछ कली,
रंगहीन गंधहीन अध-खिली सहमी बिखरी डरी सी,
छलक पड़े थे नैनों में दो बूँद नीर की भटकी हुई।

बहुत ही करीब से गुजर चुकी थी उसके हिस्से की जिंदगी।

Saturday, 25 March 2017

आभास

परछाई हूँ मैं, बस आभास मुझे कर पाओगे तुम .....

कर सर्वस्व निछावर,
दिया था मैने स्पर्शालिंगन तुझको,
इक बुझी चिंगारी हूँ अब मैं,
चाहत की गर्मी कभी न ले पाओगे तुम।

अब चाहो भी तो,
आलिंगनबद्ध नही कर पाओगे तुम,
इक खुश्बू हूँ बस अब मैं,
कभी स्पर्श मुझे ना कर पाओगे तुम।

चाहत हूँ अब भी तेरा,
नर्म यादें बन बिखरूँगा मैं तुममें ही,
अमिट ख्याल हूँ बस अब मैं,
कभी मन से ना निकाल पाओगे तुम।

तेरी साँसों में ढलकर,
बस छूकर तुम्हें निकल जाऊँगा मैं,
झौंका पवन का हूँ इक अब मैं,
सदा अपनी आँचल से बंधा पाओगे तुम।

साया हूँ तेरा, बस महसूस मुझे कर पाओगे तुम....

Wednesday, 15 March 2017

अवशेष

अवशेष बचे हो कुछ मुझमें तुम!
विघटित होते अंश की तरह,
कहीं दूर भटक जाता है ये अर्धांशी,
अवशेषों के बीच कभी बज उठती कोई संगीत,
अतीत से आते किसी धुन की तरह...

विखंडित अवशेष लिए अन्तःमन में,
बचा हूँ कुछ अर्धांश सा शेष,
बीते से मेरे कुछ पल, मैं और इक दिवा स्वप्न!
धुंधली सी तेरी झलक के अंश,
और तेरी चुंबकीय यादों के अमिट अवशेष!

संवेदनाओं के अवशेषों के निर्जीव ढेर पर,
कहीं ढूंढता हूँ मैं तेरा शेष,
इक जिजीविषा रह गई है बस शेष,
जिसमें है कुछ व्याकुल से पल,
और तेरे अपूर्ण प्रेम के अमिट अवशेष!