Thursday, 16 November 2017

बदल रहा ये साल

युग का जुआ कांधे देकर, बदल रहा ये साल...

यादों के कितने ही लम्हे देकर,
अनुभव के कितने ही किस्से कहकर,
पल कितने ही अवसर के देकर,
थोड़ी सी मेरी तरुणाई लेकर,
कांधे जिम्मेदारी रखकर, बदल रहा ये साल...

प्रशस्त प्रगति के पथ देकर,
रोड़े-बाधाओं को कुछ समतल कर,
काम अधूरे से बहुतेरे रखकर,
निरंतर बढ़ने को कहकर,
युग का जुआ कांधे देकर, बदल रहा ये साल...

अपनों से अपनों को छीनकर,
साँसों की घड़ियों को कुछ गिनकर,
पीढी की नई श्रृंखला रचकर,
जन्म नए से युग को देकर,
सारथी युग का बनाकर, बदल रहा ये साल....

नव ऊर्जा बाहुओं में भरकर,
कीर्तिमान नए रचने को कहकर,
लक्ष्य महान राहों में रखकर,
आँखों में नए सपने देकर,
विकास पुरोधा बनकर, बदल रहा ये साल...

प्रस्तावों की इक सूची देकर,
मंत्र नए सबके कानों में कहकर,
अपनी मांग नई कुछ रखकर,
प्रण जन-जन से लेकर,
कुछ लेकर कुछ देकर, बदल रहा ये साल.....
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Accolade from "शब्दनगरी" / 17.11.2017
"बधाई हो! आपका लेख आज की सर्वश्रेष्ठ रचना के रूप में चयनित हुआ है"
हृदय तल से धन्यवाद शब्दनगरी....

Tuesday, 14 November 2017

मुख़्तसर सी कोई बात

मुख़्तसर सी, कोई न कोई तो होगी उसमें बात....

सांझ की किरण, रोज ही छू लेती है मुझे,
देखती है झांक कर, उन परदों की सिलवटों से,
इशारों से यूँ ही, खींच लाती है बाहर मुझे,
सुरमई सी सांझ, ढ़ल जाती है फिर आँखों में मेरी!
सिंदूरी ख्वाब लिए, फिर सो जाती है रात...

मुख़्तसर सी, कोई न कोई तो होगी उसमें बात....

झांकती है सुबह, उन खिड़कियों से मुझे,
रंग वही सिंदूरी, जैसे सांझ मिली हो भोर से,
मींचती आँखों में, सिन्दूरी सा रंग घोल के,
रंगमई सी सुबह, बस जाती है फिर आँखों में मेरी!
दिन ढ़ले फिर, है उसी सपने की बात...

मुख़्तसर सी, कोई न कोई तो होगी उसमें बात....

रंग वही सिंदूरी, लाकर देना तुम मुझे,
मांग सजाऊँगा उसकी, रंग लाकर किरणों से,
किरणपूंज सी, वो आएँगे जब बाहों में,
चंपई वो रंग, बिखरती जाएगी इन राहों में मेरी!
सिंदूरी सांझ तले, कट जाएगी ये रात...

मुख़्तसर सी, कोई न कोई तो होगी उसमें बात....

Monday, 13 November 2017

बदला सा अक्श

इस दफा आईने में, बदला सा था अक्श मेरा....

न जाने वो कौन सा, जादू था भला,
न जाने किस राह, मन ये मेरा था चला,
कुछ सुकून ऐसा, मेरे मन को था मिला,
आँखों मे चमक, नूर सा चेहरा खिला।

आईना था वही, बस बदला सा था अक्श मेरा...

इस दफा, जादू किसी का था चला,
दुआ किसी की, कबूल कर गया खुदा,
नई राह थी, नया था कोई सिलसिला,
नूर लेकर यूँ, अक्श फूल सा खिला।

इस दफा आईने में, यूँ बदला सा था अक्श मेरा....

धूंध छँट चुकी, इक शख्स था मिला,
नूर-ए-खुदा शख्स के चेहरे पे था खिला,
सामने आइने के, मैं ही मगर मिला,
दूर बादलों से परे, मुझे खुदा था मिला।

इस दफा आईने में, बदला सा था अक्श मेरा....

माँ, बेटा और प्रश्न

माँ से फिर पूछता नन्हा "क्या हुआ फिर उसके बाद?"

निरुत्तर माता, कुछ पल को चुप होती,
मुस्कुराकुर फिर, नन्हे को गोद में भर लेती,
चूमती, सहलाती, बातों से बहलाती,
माँ से फिर पूछता नन्हा "क्या हुआ फिर उसके बाद?"

माँ, विह्वल सी हो उठती जज्बातों से,
माँ का मन, कहाँ ऊबता नन्हे की बातों से?
हँसती, फिर गढ़ती इक नई कहानी,
माँ से फिर पूछता नन्हा "क्या हुआ फिर उसके बाद?"

बार-बार वही प्रश्न फिर दोहराता नन्हा,
धैर्य पूर्वक माता कहती फिर कुछ अनकहा,
परत दर परत सुलझाती जिज्ञासा,
माँ से फिर पूछता नन्हा "क्या हुआ फिर उसके बाद?"

धैर्य, शौर्य, दया, ज्ञान सब माँ से पाया,
बड़ा हुआ नन्हा, उसने माँ को ही रुलाया!
तपती धूप में ममता की वो छाया,
माँ से फिर पूछता नन्हा "क्या हुआ फिर उसके बाद?"

पोंछ लेती वो आँसू, आँचल में छुपकर,
सो जाती बिन खाए, किसी कोने में रहकर,
डर जाती बेटे की आहट सुनकर,
माँ से फिर पूछता बेटा "क्या हुआ फिर उसके बाद?"

अब माँ को बस सर्वदा चुप ही रहना था,
खामोशी ही उसका गहना था,
गाढ़ी नींद में उसे जो अब सोना था,
माँ से क्या पूछता बेटा "क्या हुआ फिर उसके बाद?"

Saturday, 11 November 2017

750वीं रचना

स्व-अनुभवों की विवेचना है मेरी 750वीं रचना,
रचनाओं की भीड़ में लिख रहा हूँ एक और रचना....

नाम मात्र की नहीं ये रचना,
पंख ले उड़ान भर रही हो जैसे कोई संकल्पना,
पीड़ संग जन्म रही जैसे कोई कल्पना,
स्व-अनुभवों की हो रही जैसे आत्म-विवेचना......

रचनाओं की भीड़ में है लिख रहा मैं 750वीं रचना......

ख्यालों की जैसे कोई गहना,
पहनता हूँ हरबार जब भी ख्यालों को हो सँवरना,
सँवरते हैं ख्याल, सँवरती है ये कल्पना,
नव-श्रृंगार कर, जीवंत हो उठती है रचना......

रचनाओं की भीड़ में लिख रहा हूँ एक और रचना......

भावावेग का ज्वार सा उठना,
विरह, प्रेम, गीत, एकाकीपन का शब्दों में ठलना,
भाव के सागर में हो जैसे गोते लगाना,
स्वतः स्फूर्त कविताओं का मूर्त हो उठना......

स्व-अनुभवों की विवेचना है ये मेरी 750वीं रचना.....
रचनाओं की भीड़ में लिखता रहा हूँ एक और रचना...

❤नमन कर रही सबों को मेरी ये 750वीं रचना❤
CELEBRATING 750th STEP
& the Way Forward.......

Thanks Everyone for Constantly Encouraging Me...

रेत सा लम्हा

वक्त की झोली में, अनंत लम्हे हैं भरे,
जीते जागते से, बिल्कुल हरे भरे...
क्युँ न मांग लूं, वक्त से मैं भी एक लम्हा,
चुपचाप क्युँ रहूँ मैं इस पल तन्हा.....?

होगा कोई तो लम्हा, मेरे भी नाम का,
भीड़-भाड़ में, हो जो मेरे काम का,
क्यूँ न ढूंढ़ लूँ, उस झोली से वो एक लम्हा,
तन्हा गुजार लूँ, मै वो ही लम्हा.....!

लम्हा न ऐसा कोई, बस होता जो मेरा,
करता रहा अनसूना, वक्त भी मेरा,
वक्त के हाथों कभी, छूटा था कोई लम्हा,
पास है मेरे, पर रेत सा है तन्हा......!

दूर दूर तक, लम्हों के रेत किसने बिखेरे,
रेत के वो लम्हे, अब तेरे है न मेरे!
दिया था वक्त ने, हरा-भरा जीवंत लम्हा,
भाग्य में मेरे, बस रेत सा लम्हा.....!

आइए आ जाइए

आइए आ जाइए, थोड़ा और करीब आ जाइए......

हँसिए-हँसाइए, रूठीए मनाइए,
गाँठ सब खोलकर, जरा सा मुस्कुराइए,
गुदगुदाइए जरा खुद को भूल जाइए,
भरसक यूँ ही कभी, मन को भी सहलाइए,
जीने के ये चंद बहाने सीख जाइए......

आइए आ जाइए, थोड़ा और करीब आ जाइए......

हैं जो अपने, दूर उनसे न जाइए,
रिश्तों की महक को यूँ न बिसर जाइए,
मन की साँचे में इनको बस ढ़ालिए,
जीते जी न कभी, इन रिश्तों को मिटाइए,
जीने के ये चंद बहाने सीख जाइए......

आइए आ जाइए, थोड़ा और करीब आ जाइए......

भूल जो हुई, मन में न बिठाइए,
खता भूलकर, दिल को साफ कीजिए,
फिर पता पूछकर, घर चले जाइए,
भूल किस से ना हुई, ये ना भूल जाइए,
जीने के ये चंद बहाने सीख जाइए......

आइए आ जाइए, थोड़ा और करीब आ जाइए......

अवगुंठन हटा, फूल तो खिलाइए,
हर मन में है कली, बस बागवाँ बनाइए,
वक्त जो मिले, कभी घूम आइए,
हो बाग जो बड़ा, फिर कही भी सुस्ताइए,
जीने के ये चंद बहाने सीख जाइए......

आइए आ जाइए, थोड़ा और करीब आ जाइए......

पहाड़ों में

उन पहाड़ों में कहीं, खुद को छोड़ आया था मैं....

विशाल होकर भी कितनी शालीन,
उम्रदराज होकर भी नित नवीन,
एकांत में रहकर भी कितनी हसीन,
मुखर मौन, भाव निरापद और संज्ञाहीन....

उन पहाड़ों में कहीं, खुद को छोड़ आया था मैं....

ताप में रहकर भी कितनी शीतल,
शांत रहकर भी लगती चंचल,
दरिया बनकर बह जाती कलकल,
प्रखर सादगी, उदार चेतना और प्रांजल......

उन पहाड़ों में कहीं, खुद को छोड़ आया था मैं....

न ही कोई द्वेष, न ही कोई दुराव,
सबों के लिए एक सम-भाव,
न आवश्यकता, न कोई अभाव,
शिखर उत्तुंग, शालीन और विनम्रभाव.......

उन पहाड़ों में कहीं, खुद को छोड़ आया था मैं....
-------------------------------------------------------------------सम्मान@
*"राष्ट्रीय सागर"* में प्रकाशित मेरी कविता *"उन पहाड़ों मे"अंक देखना हो तो avnpost.com ke epaper पर देखें। या सीधे epaperrashtriyasagar.com पर *पेज 6* पर देखें।

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Friday, 10 November 2017

ऋतुराज

फिजाओं ने फिर, ओस की चादर है फैलाई,
संसृति के कण-कण पर, नव-वधु सी है तरुणाई,
जित देखो तित डाली, नव-कोपल चटक आई,
ऋतुराज के स्वागत की, वृहद हुई तैयारी.....

नव-वधु सी नव-श्रृंगार, कर रही ये वसुंधरा,
जीर्ण काया को सँवार, निहार रही खुद को जरा,
हरियाली ऊतार, तन को निखार रही ये जरा,
शिशिर की ये पुकार, सँवार खुद को जरा.....

कण-कण में संसृति के, यह कैसा स्पंदन,
ओस झरे हैं झर-झर, लताओं में कैसी ये कंपन,
बह चली है ठंढ बयार, कलियों के झूमे हैं मन,
शिशिर ऋतु का ये, मनमोहक है आगमन.....

कोयल ने छेड़े है धुन, सुस्वागतम ऋतुराज,
रंगबिरंगे फूलोवाली, संसृति लेकर आई है ताज,
सतरंगी सी है छटा, संग झूम रहा ये ऋतुराज,
गीत गा रहे पंछी, शिशिर ने खोले हैं राज....

Thursday, 9 November 2017

किसकी राह तके

सदियाँ बीत गई, प्रीत वो रीत गई...........

बैरन ये प्रीत हुई,
डोली प्रीत की, बस यादों में ही सजे,
तुझको वो भूल चुके,
तू किसको याद करे, किसकी राह तके?

बैरन हुई ये पवन,
मुई, गुजरती है अब क्यूँ छूकर ये बदन,
न वो पुरवाई चले,
तू क्युँ उसको याद करे, किसकी राह तके?

बदल गए मौसम,
बदली वो घटा, बूंदें बारिश की ये छले,
धूप सी ये छाँव लगे,
तू क्युँ उनको याद करे, किसकी राह तके?

शहर अंजान हुए,
अपना ना कोई, बेगाना सा हर मोड़ लगे,
गलियाँ ये विरान हुए,
तू तन्हा किसे याद करे, किसकी राह तके?

न आएंगे अब वे,
तुझसे नजरें भी न, मिला पाएंगे अब वे,
नैनों से क्युँ आब झरे,
तू रो-रो किसे याद करे, किसकी राह तके?

सदियाँ बीत गई,प्रीत वो रीत गई...........