Saturday, 23 December 2017

हजारदास्ताँ

अपरिमित प्रेम तुम्हारा, क्या बंधेगे परिधि में......

छलक आते हैं, अक्सर जो दो नैनों में,
बांध तोड़कर बह जाते हैं,
जलप्रपात ये, मन को शीतल कर जाते हैं,
अपरिमित निरन्तर प्रवाह ये, 
प्रेम की बरसात ये, क्या बंधेगे परिधि में........

जल उठते हैं, जो गम की आँधी में भी,
शीतल प्रकाश कर जाते हैं,
दावानल ये, गम भी जिसमें जल जाते हैं,
बिंबित चकाचौंध प्रकाश ये,
झिलमिल आकाश ये, क्या बंधेगे परिधि में........

सहला जाते है, जो स्नेहिल स्पर्श देकर,
पीड़ मन की हर जाते हैं,
लम्हात ये, हजारदास्ताँ ये कह जाते हैं,
कोई मखमली एहसास ये,
अपरिमित विश्वास ये, क्या बंधेगे परिधि में........

अपरिमित प्रेम तुम्हारा, क्या बंधेगे परिधि में......

Friday, 22 December 2017

मुद्दतों बाद

मुद्दतों बाद....
फिर कहीं खुद से मिल पाया था मैं.......

मन के इसी सूने से आंगन में,
फिर तुम्हारी ही यादों से टकराया था मैं,
बोल कुछ भी तो न पाया था मैं,
बस थोड़ा लड़खड़ाया था मै,
मुद्दतों बाद....
फिर कहीं खुद से मिल पाया था मैं.......

खिला था कुछ पल ये आंगन,
फूल बाहों में यादों के भर लाया था मैं,
खुश्बुओं में उनकी नहाया था मै,
खुद को न रोक पाया था मैं,
मुद्दतों बाद....
फिर कहीं खुद से मिल पाया था मैं.......

अब तलक थी वो मांग सूनी,
रंग हकीकत के वहीं भर आया था मैं,
उन यादो से अब न पराया था मैं,
डोली में बिठा लाया था मैं,
मुद्दतों बाद....
फिर कहीं खुद से मिल पाया था मैं.......

अब वापस न जा पाएंगे वो,
खुद को उस पल में छोड़ आया था मैं,
पल में सदियाँ बिता आया था मैं,
यादों मे अब समाया था मैं,
मुद्दतों बाद....
फिर कहीं खुद से मिल पाया था मैं.......

Wednesday, 20 December 2017

ख्वाबों के घर

वो ख्वाबों के घर, है शायद कहीं किसी रेत के शहर....

है अपरिच्छन्न ये, सदा है ये आवरणविहीन,
अनन्त फैलाव व्यापक सीमाविहीन,
पर रहा है ये घटाटोप रास्तों पर,
सघन रेत के आवरणविहीन बसेरों पर,
रेत का ये शहर, भटकते है हम अपवहित रास्तों पर...

है ख्वाब ये, कब हकीकत बना है ये यार?
टूटा है ये, फिर से बना है बार बार,
हो चुका है फना, ये हजार बार,
बेमिसाल, फिर बनता रहा है ये हर बार,
रेत का ये शहर, फिर भी लग रहा सदा ही ये उजाड़....

है बस धूँध ये, हर तरफ उठ रहा है धुआँ,
न जाने किस जानिब, मंजिल है कहाँ,
अपवहित से उन रास्तों पर,
भटकते रहे है ये दरबदर सदा,
रेत का ये शहर, है किसको खबर लिए जाए ये कहाँ ...

है परित्यक्त ये, परिगृहीत न हुआ ये कभी,
मध्य रेत के डहडहाता रहा फिर भी,
ये ख्वाब हैं, जिद्दी परिंदों से,
सघन रेत पर भी खिल ही आएंगे,
रेत का ये शहर, अपलाप कर भी न इसे मिटा पाएंगे...

Sunday, 17 December 2017

तन्हा गजल

कोई शामोसहर, गाता है कहीं तन्हा सा गजल.....

मेह लिए प्राणों मे, कोई दर्द लिए तानों में,
सहरा में कभी, या कभी विरानों में,
रंग लिए पैमानों में, फैलाता है आँचल.....
कोई शामोसहर, गाता है कहीं तन्हा सा गजल.....

किसी आहट से, पंछी की चहचहाहट से,
कलियों से, फूलों की तरुणाहट से,
नैनों की शर्माहट से, शमाँ देता है बदल....
कोई शामोसहर, गाता है कहीं तन्हा सा गजल.....

विह्वल सा गीत लिए, भावुक सा प्रीत लिए,
रीत लिए, धड़कन का संगीत लिए,
मन में मीत लिए, विरह में है वो पागल....
कोई शामोसहर, गाता है कहीं तन्हा सा गजल.....

विवश कर जाता है, यूँ मन को भरमाता है,
बरसता है, बादल सा लहराता है,
इठलाता है खुद पर, है कितना वो चंचल....
कोई शामोसहर, गाता है कहीं तन्हा सा गजल.....

सहांश

हिस्से मे आए हैं मेरे कुछ बेचैन से पल,
सहांश है ये मेरे...
जो तुमने ही दिए थे कल.....

परस्पर मुझ में ही कहीं ये पिरोए हैं हरपल,
अनुस्यूत हो इस मन में कहीं,
उलझे से धागों की, अन्तहीन सी लड़ी बनकर!
सहरा में किसी एकाकी वृक्ष पर लिपटी लताओं जैसी..
तन मन को गूँधकर तुम यहीं बैठे हो कहीं...

एकाकी सा ये वैरागी मन बेचैन है हरपल,
विमुख क्षण-भर ये तुझसे नहीं,
जाएँ भी ये कहाँ, उन यादों से अनुस्यूत होकर!
ज्यूँ अमरलता कोई जीती हो मरती हो इक डाली पर...
सहांश हैं ये तेरे, यूँ जीते हैं मुझ में ही कही...

वो ही सहांश, नैनों को कर गए हैं सजल,
राग रहित हो चुकी हो जैसे गजल,
दूर तलक फैली है, इक तन्हाई मन की राहों पर,
सूना है ये सहरा, गाते थे जो खुले गेसूओं को देखकर...
अनुस्यूत हो बंधा है, ये मन इनमें ही कहीं....

हिस्से मे आए हैं मेरे ये कुछ बेचैन से पल,
सहांश है ये मेरे...
जो तुमने ही दिए थे कल.....

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सहांश : किसी के साथ रहने या होने पर मिलने वाला अंश या भाग। 
अनुस्यूत: 1. गूँथा या पिरोया हुआ 2. सिला हुआ 3. क्रमबद्ध
4. परस्पर मिला हुआ।

Thursday, 14 December 2017

कत्ल

जीने की आरजू लिए, कत्ल ख्वाहिशों के करता हूँ....

जिन्दा रहने की जिद में, खुद से जंग करता हूँ
लड़ता हूँ खुद से, रोज ही करता हूँ कत्ल....
भड़क उठती बेवकूफ संवेदनाओं का,
लहर सी उमड़ती वेदनाओं का,
सुनहरी लड़ियों वाली कल्पनाओं का,
अन्त:स्थ दबी बुद्धु भावनाओं का,
दबा देता हूँ टेटुआ, बेरहम बन जाता हूँ,
जीने की आरजू लिए, रोज ही कई कत्ल करता हूँ....

यही बेकार की बातें, न देती है जीने, न ही मरने,
करती है हरपल अनर्गल बकवास मुझसे,
भुनभुनाती है कानों में, झकझोरती है मन को,
बड़ी ही वाहियात सी है ये चीजें, 
कहाँ चैन से पलभर भी रहने देती है मुझको,
मन की ये वर्जनाएँ, जीने न देती है मुझको,
कभी तो नजर अंदाज कर देता हूँ मै इन्हे,
ऊबकर फिर कभी, अपनी हाथों से कत्ल करता हूँ.....

जीने की आरजू लिए, रोज ही कत्ल नई करता हूँ....

Wednesday, 13 December 2017

अकेले प्रेम की कोशिश

यूँ जारी है मेरी कोशिशें, अकेले ही प्रेम लिखने की....

कोशिशें बार-बार करता हूँ कि,
रत्ती भर भी छू सकूँ अपने मन के आवेग को,
जाल बुन सकूँ अनदेखे सपनों का,
चून लूँ, मन में प्रस्फुटित होते सारे कमल,
अर्थ दे पाऊँ अनियंत्रित लम्हों को,
न हो इंतजार किसी का, न हो हदें हसरतों की....

यूँ जारी है मेरी कोशिशें, अकेले ही प्रेम लिखने की....

कोशिशें अनथक करता हूँ कि,
रंग कोई दूसरा ही भर दूँ पीले अमलतास में,
वो लाल गुलमोहर हो मेरे अंकपाश में,
भीनी खुश्बुएँ इनकी हवाओं में लिख दे प्रेम,
सुबासित हों जाएँ ये हवाएँ प्रेम से,
न हो बेजार ये रंग, न हो खलिश खुश्बुओं की...

यूँ जारी है मेरी कोशिशें, अकेले ही प्रेम लिखने की....

कोशिशें अनवरत करता हूँ कि,
कंटक-विहीन खिल जाएँ गुलाब की डाली,
बेली चम्पा के हों ऊंचे से घनेरे वृक्ष,
बिन मौसम खिलकर मदमाए इनकी डाली,
इक इक शाख लहरा कर गाएँ प्रेम,
न हो कोई भी बाधा, न हो कोई सीमा प्रेम की.....

यूँ जारी है मेरी कोशिशें, अकेले ही प्रेम लिखने की....

कोशिशें निरंतर करता हूँ कि,
रोक लूँ हर क्षण बढ़ते मन के विषाद को,
दफन कर दूँ निरर्थक से सवाल को,
स्नेहिल स्पर्श दे निहार लूँ अपने अक्श को,
सुबह की धूप का न हो कोई अंत,
न हो धूमिल सी कोई शाम, न रात हो विरह की...

यूँ जारी है मेरी कोशिशें, अकेले ही प्रेम लिखने की....

कोशिशें नित-दिन करता हूँ कि,
चेहरे पर छूती रहे सुबह की वो ठंढ़ी धूप,
मूँद लू नैन, भर लूँ आँखो मे वो रूप,
आसमान से छन-छन कर आती रहे सदाएँ,
बूँद-बूँद तन को सराबोर कर जाएँ,
न हो तपती सी किरण, न ही कमी हो छाँव की...

यूँ जारी है मेरी कोशिशें, अकेले ही प्रेम लिखने की....

Saturday, 9 December 2017

संगतराश

जिंदादिल हूँ, कारीगर हूँ, हूँ मैं इक संगतराश...
तराशता हूँ शब्दों की छेनी से दिल,
बातों की वेणी में उलझाता हूं ये महफिल,
कर लेना गौर, न करना यूँ आनाकानी,
उड़ाना ना तुम यूँ मेरा उपहास,
संगतराश हूँ अलबेला.....
आओ, बैठो पल दो पल को तुम मेरे पास,
प्रेम की छेनी से खुट-खुट, थोड़ा तुमको भी दूँ तराश।

करता हूँ कुछ मनमानी, कुछ थोड़ा सा हास... 
गढ़ जाता हूँ बिंदी उन सूने माथों पे,
सजाता हूँ लरजते से होठों पे कोई तिल,
शरमाता हूँ, यूँ हीं करके कोई नादानी,
ना करना तुम यूँ मेरा परिहास,
मैं संगतराश हूँ अकेला....
आओ, बैठो पल दो पल को तुम मेरे पास,
हास की छेनी से खुट-खुट, थोड़ा तुमको भी दूँ तराश।

तन्हाई में ये मेरा दिल, संजोता है सपने खास....
कल्पना आँखों में, उड़ते रंग गुलाल,
साकार सी मूरत, मन में उभरता मलाल,
वही शक्ल, वही सूरत जानी पहचानी,
यूँ ही फिर उड़ाती मेरा उपहास,
मैं संगतराश हूँ मतवाला....
आओ, बैठो पल दो पल को तुम मेरे पास,
नैनों की छेनी से खुट-खुट, थोड़ा तुमको भी दूँ तराश।

Friday, 8 December 2017

उपांतसाक्षी

न जाने क्यूँ.....

जाने....
कितने ही पलों का...
उपांतसाक्षी हूँ मैं,
बस सिर्फ....
तुम ही तुम
रहे हो हर पल में,
परिदिग्ध हूँ मैं हर उस पल से,
चाहूँ भी तो मैं ....
खुद को...
परित्यक्त नहीं कर सकता,
बीते उस पल से।

उपांतसाक्षी हूँ मैं....
जाने....
कितने ही दस्तावेजों का...
उकेरे हैं जिनपर...
अनमने से एकाकी पलों के,
कितने ही अभिलेख.... 
बिखेरे हैं मन के 
अनगढ़े से आलेख,
परिहृत नही मैं
पल भर भी...
बीते उस पल से।

आच्छादित है...
ये पल घन बनकर मुझ पर,
आवृत है....
ये मेरे मन पर,
परिहित हूँ हर पल,
जीवन के उपांत तक,
दस्तावेजों के हाशिये पर...
उपांतसाक्षी बनकर,
परिदिग्ध हूँ,
परिहृत नही हूँ मै,
पल भर भी...
बीते उस पल से।

न जाने क्यूँ.....

Thursday, 7 December 2017

व्यर्थ का अर्थ

शब्द ही जब विलीन हो रहे हों, तो अर्थ क्या?

लुप्त होते रहे एक-एककर शब्द सारे,
यूँ पन्नों से विलीन हुए, वो जीने के मेरे सहारे,
शायद कमजोर हुई थी ये मेरी नजर,
या शायद, शब्द ही कहीं रहे थे मुझसे मुकर....

शब्द ही जब विलीन हो रहे हों, तो अर्थ क्या?

अर्थ शब्दों के, समझ से परे थे सारे,
व्यर्थ थे प्रयत्न, विलुप्त थे शब्दों के वो नजारे,
शायद वक्त ने की थी ये सरगोशी,
लुप्त हुई थी ये हँसी, फैली हुई थी खामोशी....

शब्द ही जब विलीन हो रहे हों, तो अर्थ क्या?

ढूंढने चला हूँ मैं, अब वो ही शब्द सारे,
वक्त की सरगोशियों में, जो कर गए थे किनारे,
शायद सुन जाएंगे वो मेरी अनकही,
विलुप्त से वो शब्द, मेरे मन की ही थी कही...

शब्द ही जब विलीन हो रहे हों, तो अर्थ क्या?

क्या व्यर्थ ही जाएंगे, मेरे वो प्रयास सारे?
अर्थपूर्ण से वो शब्द, क्या थे सरगोशियों के मारे?
शायद पन्नों में कहीं छुपे थे वो शब्द,
करके कानाफूसी, मुझे कर गए थे वो निःशब्द....

शब्द ही जब विलीन हो रहे हों, तो अर्थ क्या?