Saturday, 3 March 2018

ओ रे साथिया!

ओ रे साथिया! चल गीत लिखें कोई इक नया....

बदलेंगे यहाँ मौसम कई,
बदलेगी न राहें कभी सुरमई,
सुरीली हो धुन प्यार की,
नया गीत लिख जाएंगे हम कई...
यू चलते रहेंगे हम यहाँ,
आ बना ले इक नया हम जहाँ....

ओ रे साथिया! चल गीत लिखें कोई इक नया....

हो प्रेम की वादी कोई,
गूंजते हों जहाँ शहनाई कोई,
गीतों भरी हो सारी कली,
आ झूमें वहाँ हर डगर हर गली...
यूं मिलते रहे हम यहाँ,
आ लिख जाएँ हम नया दास्ताँ.....

ओ रे साथिया! चल गीत लिखें कोई इक नया....

हर गीत मे हो तुम्ही,
संगीत की हर धुन में तुम्ही,
तुम सा नही दूजा कोई,
रंग दूजा न अब चढता कोई....
यूं बदलेंगे ना हम यहाँ,
आ मिल रचाएँ हम सरगम नया....

ओ रे साथिया! चल गीत लिखें कोई इक नया....

व्याप्त सूनापन

क्यूं व्याप्त हुआ अनचाहा सा सूनापन?
क्या पर्याप्त नहीं, इक पागल सा दीवानापन?

छवि उस तारे की रमती है मेरे मन!
वो जा बैठा कहीं दूर गगन,
नभ विशाल है कहीं उसका भवन!
उस बिन सूना मेरा ये आँगन?
छटा विहीन सा है लगता, अब क्यूं ये गगन?
क्यूं वो तारे, आते नहीं अब इस आँगन?
व्याप्त हुआ क्यूं ये अंधियारापन?
क्या पर्याप्त नहीं, छोटा सा मेरा ये आँगन?

क्यूं व्याप्त हुआ अनचाहा सा सूनापन?
क्या पर्याप्त नहीं, इक पागल सा दीवानापन?

कवि मन रमता इक वो ही आरोहण!
क्या भूला वो मेरा ही गायन?
जर्जर सी ये वीणा मेरे ही आंगन!
असाध्य हुआ अब ये क्रंदन,
सुरविहीन मेरी जर्जर वीणा का ये गायन!
संगीत बिना है कैसा यह जीवन?
व्याप्त हुआ क्यूं ये बेसूरापन?
क्या पर्याप्त नहीं, मेरे रियाज की ये लगन?

क्यूं व्याप्त हुआ अनचाहा सा सूनापन?
क्या पर्याप्त नहीं, इक पागल सा दीवानापन?

Friday, 2 March 2018

रंग

सबरंग, जीवन के कितने विविध से रंग....

कहीं सूखते पात,
बिछड़ते डाली से छूटते हाथ,
कहीं टूटी डाल,
कहीं नव-कलियों का ताल,
कहीं खिलते हँसते फूल,
वहीं मुरझाए से फूल,
जमीं पर औंधे छाए से फूल,
वहीं झूलती डाली पर विहँसते शूल,
पीले होते हरे से पात,
धीमे पड़ते रंग,
वहीं नव-अंकुरित अंग,
चटक हरे भरे से रंग,
क्रन्दन-गायन दोनो संग-संग.....

सबरंग, जीवन के कितने विविध से रंग....

कहीं मरुस्थल सारा,
फैला रजकण का अंधियारा,
वहीं बहती जलधारा,
नदियों का सुंदर आहद नाद,
गिरते प्रिय जलप्रपात,
कहीं सुनामी सा भीषण गर्जन,
जल से काँपता जन-जीवन,
कभी दुःख से सुख हारा,
समाहित कभी सुख में दुःख सारा,
मन में गूंजते अनहद नाद,
कभी पलते विषाद,
कैसा जीवन का संवाद,
विष और अमृत दोनो संग संग...

सबरंग, जीवन के कितने विविध से रंग....

Thursday, 1 March 2018

होली

रंग जाऊँगा मैं प्रीत पीत, होली में ऐ मनमीत मीत...

निभाऊँगा मैं प्रीत रीत, 
तेरा बन जाऊँगा मैं मनमीत मीत,
रंग लाल टेसूओं से लेकर,
संग उलझते गेसूओं को लेकर,
गुलाल गालों पर मलकर,
मनाऊँगा होली, मैं मनमीत मीत....

रंग जाऊँगा मैं प्रीत पीत, होली में ऐ मनमीत मीत...

बरजोरी लगाऊं रंग-रंग मै,
तुझको ही लगाऊं रंग अंग-अंग मैं,
तेरे ही चलूंगा संग-संग मैं,
तेरे नाज नखरों के पतंग लेकर,
हवाओं में ही संग लेकर,
सजाऊँगा होली, मैं मनमीत मीत...

रंग जाऊँगा मैं प्रीत पीत, होली में ऐ मनमीत मीत...
 
तेरी मांग मे गुलाल भरकर,
तेरे नैनों में सिन्दूरी ख्याल रखकर,
मन के सारे मलाल धोकर,
सतरंगी राह के सब ख्वाब देकर,
हकीकत के ये रंग लेकर,
खिलाऊँगा होली, मैं मनमीत मीत...

रंग जाऊँगा मैं प्रीत पीत, होली में ऐ मनमीत मीत...

तेरी भाल पर बिंदी सजे,
रंगीन आँचल सदा खिलता रहे,
चूड़ी हमेशा बजती रहे,
पायल से रुनझुन संगीत लेकर,
ह्रदय में उठते गीत लेकर,
गाऊँगा होली ही, मैं मनमीत मीत...

रंग जाऊँगा मैं प्रीत पीत, होली में ऐ मनमीत मीत...

मंजिल

मंजिल तेरी, इसी राह आएगी निकल....
ऐ बेकरार दिल! तू चल, आ मेरे साथ चल!

क्यूं खोए है करार तू?
क्यूं यहाँ गम से है बेजार तू?
न राई का बना पहाड़ तू,
बस एक ही तो मेरा यार तू......
न जिंदगी बेकार कर!
न गम का तू कहीं इजहार कर!
ऐ बेकरार दिल! तू चल, आ मेरे साथ चल!

तू मुझसे मन का करार ले,
एक नया ऋंगार ले,
हर गम तू मुझपे वार ले,
पर यूं फैसले न तू हजार ले......
न आँहें हजार भर,
न शिकवे तू कहीं हजार कर!
ऐ बेकरार दिल! तू चल, आ मेरे साथ चल!

कल यूं पशेमाँ न होना पड़े,
तू काहे को ऐसा करे?
पल-पल जो यूं आँहें भरे,
राहें बदल बेजार खुद को करे.....
न यूं फैसले बदल!
कर के वादा कोई तू न बदल!
ऐ बेकरार दिल! तू चल, आ मेरे साथ चल!

बेशक न मुझको भी है खबर,
कि मंजिल तेरी है किधर!
इक राह पर बेखबर,
यूं ही चलना है तुझको मगर......
रुक जाए ना ये सफर!
यहीं है कहीं तेरे मन का शहर!
ऐ बेकरार दिल! तू चल, आ मेरे साथ चल!

मंजिल तेरी, इसी राह आएगी निकल....
ऐ बेकरार दिल! तू चल, आ मेरे साथ चल!

Tuesday, 27 February 2018

उभरते क्षितिज

शब्दों से भरमाया, शब्दों से इतराया,
वो नभ पर, इक नया क्षितिज उभर आया...

शब्द कई, शब्दों के प्रारूप कई,
हर शब्द, इक नया स्वरूप ले आया,
कुछ शब्द शीर्षक बन इतराए,
कुछ क्षितिज की ललाट पर चढ़ भाए,
क्षितिज विराट हो इतराया,
वो नभ पर, इक नया क्षितिज उभर आया...

चुप सा क्षितिज, चहका शब्दों से,
कूक उठा कोयल सा, मधुर तान में गाया,
नाचा मयूर सा, लहराकर शर्माया,
कितनी ही कविताएँ, क्षितिज लिख आया,
क्षितिज मंत्रनाद कर गाया,
वो नभ पर, इक नया क्षितिज उभर आया...

सुनसान क्षितिज, गूंजा शब्दों से,
पूर्ण शब्दकोष, क्षितिज पर सिमट आया,
गद्य, पद्य क्षितिज पे आ उतरे,
कवियों का मेला, लगा है अब क्षितिज पे,
क्षितिज महाकाव्य रच आया,
वो नभ पर, इक नया क्षितिज उभर आया...

शब्दों से भरमाया, शब्दों से इतराया,
वो नभ पर, इक नया क्षितिज उभर आया...

प्रश्न से परहेज

क्यूं परहेज तुझे है मेरे प्रश्नों से?
है यक्ष प्रश्न यही...
मेरे उर्वर मन में अब तक अनसुलझे से!

जबकि .....
मेरी प्रश्न के केन्द्रबिंदु हो तुम!
मेरी अनगिनत प्रश्नों में सर्वश्रेष्ठ हो तुम!
मेरी अभिलाषा में इक ख्वाब हो तुम!
मेरी अनसुलझी सी इक सवाल हो तुम!
मेरी अश्कों में बहते से इक आब हो तुम!
मेरी जिज्ञासा के जवाब हो तुम!

फिर परहेज तुझे क्यूं मेरे प्रश्नों से?
उभरते है बस प्रश्न यही...
मेरे उर्वर मन में अब तक अनसुलझे से!

शायद ....
इस अथाह सृष्टि के थाह हो तुम!
या इस सृष्टि की हद के उस पार हो तुम?
प्रकृति का विस्मित रूप हो तुम!
या चिरपरिचित सी कोई स्वरूप हो तुम!
या हो वसुंधरा के आलिंगन का श्रृंगार तुम!
या कूकती करुण पुकार हो तुम!

परहेज तुझे क्यूं है मेरे प्रश्नों से?
उभरते है बस प्रश्न यही...
मेरे उर्वर मन में अब तक अनसुलझे से!

सर्वदा....
इक प्रश्न ही बने रह जाओगे तुम!
या इस पहेली को सुलझाओगे भी तुम!
या बनकर चाहत रह जाओगे तुम!
मन को प्रश्न बनकर उलझाओगे तुम!
या मुझसे ही इक प्रश्न कर जाओगे तुम!
यूं जिज्ञासा को ही बढ़ाओगे तुम!

क्यूं परहेज तुझे है मेरे प्रश्नों से?
उभरते है बस प्रश्न यही...
मेरे उर्वर मन में अब तक अनसुलझे से!

Sunday, 25 February 2018

सुख का मुखड़ा

ऐ दु:ख! तू मुझसे फेर जरा मुख!

देखूं तो! जरा ये सुख दिखता कैसा है?
क्या सुख के ये क्षण,
मोह की क्षणिक परछाई के जैसा है?
या दुख के सागर में,
डूबती-तैरती उस नैया के जैसा है?

ऐ दु:ख! तू मुझसे फेर जरा मुख!

देखूं तो! मुख उसका दिखता कैसा है?
क्युं है वो विमुख?
सुख को पल भर आने दो सम्मुख!
क्या है वो संतप्त?
या वो सावन की हवाओं के जैसा है?

ऐ दु:ख! तू मुझसे फेर जरा मुख!

देखूं तो! सुख तन्हा सा क्यूं रहता है?
दुःख की उन घड़ियो से,
डर जाने खुद उस सुख को कैसा है?
असह्य होते क्षण में,
पीड़ा के प्रांगण में कैसे वो सोता है?

ऐ दु:ख! तू मुझसे फेर जरा मुख!

देखूं तो! वो दुर्गम घाटी में कैसे रहता है?
आता जाता है वो कैसे,
क्या पथ उसका काँटों के जैसा है?
क्यूं है वो सबसे विरक्त,
उस विराने से नाता उसका कैसा है?

ऐ दु:ख! तू मुझसे फेर जरा मुख!
आने दो पल भर जरा, सुख को सम्मुख,
चूम लूंगा फिर तेरा भी मुख,
प्यारा है तू, तू तो संग मेरे ही रहता है!

फागुन में तुम याद आए

क्षितिज के आँचल हुए जब लाल, तुम याद आए.....

तन सराबोर, हुआ इन रंगों से,
तन्हा दूर रहे, कैसे कोई अपनों से?
भीगे है मन कहाँ, फागुन के इन रंगों से,
तब भीगा वो तेरा स्पर्श, मुझे याद आए.....

क्षितिज के आँचल हुए जब लाल, तुम याद आए.....

घटाओं पे जब बिखरे है गुलाल,
हवाओं में लहराए है जब ये बाल,
फिजाओं के बहके है जब भी चाल,
तब सिंदूरी वो तेरे भाल, मुझे याद आए....

क्षितिज के आँचल हुए जब लाल, तुम याद आए.....

नभ पर रंग बिखेरती ये किरणें,
संसृति के आँचल, ये लगती है रंगने,
कलिकाएँ खिलकर लगती हैं विहँसने,
तब चमकते वो तेरे नैन, मुझे याद आए....

क्षितिज के आँचल हुए जब लाल, तुम याद आए.....

फागुनाहट की जब चले बयार,
रंगों से जब तन को हो जाए प्यार,
घटाओं से जब गुलाल की हो बौछार,
तब आँखें वो तेरी लाल, मुझे याद आए....

क्षितिज के आँचल हुए जब लाल, तुम याद आए.....

Monday, 19 February 2018

एकाकी वेला

एकाकी से इस वेला में, मन कितना अकेला है...

ये रात है ! है निर्जन सा ये दूसरा पहर....
नीरवता है फैली सी, बिखरी है खामोशी,
चुप सी है रजनीगंधा, गहरी सी ये उदासी,
चुपचाप बुझ-बुझ कर, जलते वो दीपक,
गुमसुम चुप-चुप, शांत बैठा वो शलभ...
सूनापन है व्याप्त, बस यादों का मेला है....

एकाकी से इस वेला में, मन कितना अकेला है...

बदराए से नभ पर, एकाकी सा इक तारा,
नीरव सी इन रातों मे, इक वो ही है बेचारा,
जागा है बस वो ही, सो रहा ये जग सारा,
वो किसको याद करे, उसका कौन सहारा,
लुटाकर सब कुछ, खुद को ही वो हारा...
एकाकी सी इन राहों में, शायद वो भूला है!

एकाकी से इस वेला में, मन कितना अकेला है...

रातों कें साए में, व्याप रहा क्यूं सूनापन?
यादों के इस घन में, कैसा ये एकाकीपन?
पहरे हैं यादों के, मंडराते से यादों के घन,
फिर क्यूं तारे, गिनता है ये निशाचर मन?
निशा पहर किसने, गीत विरह के छेड़ा...
कैसी सूनी है रात, तन्हा कितनी ये वेला है!

एकाकी से इस वेला में, मन कितना अकेला है...