Thursday, 22 November 2018

कहें-न-कहें

कुछ कहें, न कहें हम,
या, कुछ लिखें, न लिखें हम,
अनबोले से ये बोल, अनलिखे से ये शब्द,
तुम पढ़ लेना....

तन्हा इक पल भी, न होने देंगे तुम्हे,
निश्छल से ये झर-झर झरने.....
कल-कल से बहते ये क्षण, 
अनसुने से ये गीत, अनकहे से ये संगीत,
तुम सुन लेना....

पत्तियों पर अटकी, ओस की ये बूँदें,
समीर के ये पुरकशिश झोंके....
सहला जाएंगे हौले से तन,
अन्जाने से ये अनुभव, अनबुझ से ये रंग,
तुम समेट लेना...

गिरि पर टूटकर, बिखरती ये किरणें,
पर्वत के रंगीले शिखर सुनहरे...
नृत्य नाद करती ये किरण,
अनदेखी सी ये तस्वीर, अनदेखे ये नृत्य,
तुम देख लेना.....

कब तक है भला, साँसों का ये छंद,
पर जब तक चलते है पवन....
गुजरेंगे, छूकर ही ये तन,
अनदेखी ये छुअन, अनछूए से एहसास,
तुम जान लेना....

कुछ कहें, न कहें हम,
या, कुछ लिखें, न लिखें हम,
अनबोले से ये बोल, अनलिखे से ये शब्द,
तुम पढ़ लेना....

Tuesday, 20 November 2018

सांध्य-स्वप्न

नित आए, पलकों के द्वारे, सांध्य-स्वप्न!

अक्सर ही, ये सांध्य-स्वप्न!
अनाहूत आ जाए,
बातें कितनी ही, अनथक बतियाए,
बिन मुँह खोले,
मन ही मन, भन-भन-भन...

छलावे सा, ये सांध्य-स्वप्न!
छल कर जाए,
हर-क्षण, भ्रम-जाल कोई रच जाए,
बिन घुंघरू के,
पायल बाजे, छन-छन-छन......

पलकों में, ये सांध्य-स्वप्न!
नमी बन आए,
अधूरे ख्वाब कई, फिर से दिखलाए,
बिन सावन के,
बदरा गरजे, घन-घन-घन....

बेचैन करे, ये सांध्य-स्वप्न!
छम से आ जाए,
अद्भुद दृश्य, पटल पर रखता जाए,
बिन मंदिर के,
घंटी बाजे, टन-टन-टन......

नित आए, पलकों के द्वारे, सांध्य-स्वप्न! 

Sunday, 18 November 2018

सुरभि

कुछ भूले, कुछ याद से रहे,
कुछ वादे, दबकर किताबों में गुलाब से रहे,
सुरभि, लौट आई है फिर वही,
उन सूखे फूलों से....

मुखरित, हुए फिर वो वादे,
वो चटक रंग, वो चेहरे, वो रूप सीधे-सादे,
सुरभि, लौट आई है फिर वही,
उन खुले पन्नों से.....

महक उठे हैं, फिर वो छंद,
बनते-बिगड़ते, नए-पुराने से कई अनुबंध,
सुरभि, लौट आई है फिर वही,
उन भूले लम्हों से....

मन की लिप्सा, जागी फिर,
अँकुर आए, फिर आँखों में चाह अनगिन,
सुरभि, लौट आई है फिर वही,
उन गुजरे राहों से....

तंद्रा टूटी, इक बूँद से जैसे,
सूखी नदिया की, प्यास जगी है कुछ ऐसे,
सुरभि, लौट आई है फिर वही,
उन नन्हीं बूंदों से....

कुछ भूले, कुछ याद से रहे,
कुछ वादे, दबकर किताबों में गुलाब से रहे,
सुरभि, लौट आई है फिर वही,
उन सूखे फूलों से....

Saturday, 17 November 2018

दो प्रस्तावना

दो स्वरूप जीवन के, रचता है ईश्वर!

कामना के कई रंग देकर,
वो हँसता है ऊपर,
क्यूंकि, कल्पना से सर्वथा परे,
बिल्कुल अलग-अलग,
दो विपरीत कलाएँ, रचता है ईश्वर!

बसंत ही बसंत
या है पतझड़ ही पतझड़,
हरितिमा अनंत है
या है बंजर ही बंजर,
दो रूप जीवन के, रचता है ईश्वर!

चुप ही चुप,
या कंठ में स्वर ही स्वर,
है सुर-विहीन,
या है सुर के सातों स्वर,
दो धुन जीवन के, रचता है ईश्वर!

अभिलाषा मन में देकर,
वो हँसता है ऊपर,
क्यूँकि, चाहत से सर्वथा परे,
कथाएं अलग-अलग,
दो भिन्न प्रस्तावना, रखता है ईश्वर!

चुनने को मार्ग सही, कहता है ईश्वर!

Wednesday, 14 November 2018

अजनबी चाह

बाकी रह गई है,
कोई अजनबी सी चाह शायद....

है बेहद अजीब सा मन!
सब है हासिल,
पर अजीज है, बस चाह वो,
है अजनबी,
पर है खास वो,
दूर है,
पर है पास वो,
ख्वाब है,
कर रहा है बेताब वो,
कुछ फासलों से,
यूँ गुजर रहे हैं, चाह शायद!

सफर में साथ में,
रहते वही हैं, चाह शायद!
बाकी रह गई है...
कोई अजनबी सी चाह शायद....

मौन है ये, पर गौण नहीं!
ये तोलती है मन,
झकझोरकर, टटोलती है मन,
कभी सुप्त ये,
है कभी जीवन्त ये,
अन्तहीन सा,
प्रवाह अनन्त ये,
आस-पास ये
मन ही, किए वास ये,
कभी आहटों से,
तोडती है मौन, चाह शायद!

ज्वलन्त रात में,
जलते वही हैं, चाह शायद!
बाकी रह गई है...
कोई अजनबी सी चाह शायद....

अजनबी से इस राह में!
यूँ तो मिला मैं,
कई अजनबी सी चाह से,
कुछ प्रबल हुए,
कुछ बदल से गए,
कुछ गुम हुए,
कुछ पीछे ही पड़े,
रूबरू हो कर,
इस राह में,
कई अलविदा कह गए,
अजनबी से कुछ,
अब भी बचे हैं, चाह शायद!

मन की वादियों में,
वही ढूंढते हैं, राह शायद!
बाकी रह गई है...
कोई अजनबी सी चाह शायद....

Tuesday, 13 November 2018

बिखरे शब्द

शब्दों, के ये रंग गहरे!
लेखनी से उतार, किसने पन्नों पे बिखेरे......

विचलित, कर सके ना इन्हें,
स्याह रंग के ये पहरे,
रंगों में डूबकर, ये आए हैं पन्नों पे उभर,
मोतियों से ये, अब हैं उभरे...

शब्दों, के ये रंग गहरे!
लेखनी से उतार, किसने पन्नों पे बिखेरे......

बड़े बेनूर थे, ये शब्द पहले,
भाव में गए पिरोए,
काव्य में ढलकर, आए हैं पन्नों पे उभर,
निखर गए, अब इनके चेहरे....

शब्दों, के ये रंग गहरे!
लेखनी से उतार, किसने पन्नों पे बिखेरे......

आयाम, कितने इसने भरे,
रूप कई इसने रचे,
भंगिमाएंँ लिए, ये आए पन्नों पे उभर,
करती हुई, ये नृत्य कलाएँ...

शब्दों, के ये रंग गहरे!
लेखनी से उतार, किसने पन्नों पे बिखेरे......

धूमिल भी क्या करेंगी इन्हें,
वक्त की ये ठोकरें,
विविधता लिए, ये आए पन्नों पे उभर,
सदाबहार बन, ये जो ठहरे.....

शब्दों, के ये रंग गहरे!
लेखनी से उतार, किसने पन्नों पे बिखेरे......

Sunday, 11 November 2018

खुद लिखती है लेखनी

मैं क्या लिखूं! खुद लिख पड़ती है लेखनी....

गीत-विहग उतरे जब द्वारे,
भीने गीतों के रस, कंठ में डारे,
तब बजते है, शब्दों के स्तम्भ,
सुर में ढ़लते हैं, शब्द-शब्द!

मैं क्या लिखूं! फिर खुद लिखती है लेखनी...

भीगी है जब-जब ये आँखें,
अश्रुपात कोरों से बरबस झांके,
तब डोलते हैं, शब्दों के स्तम्भ,
स्खलित होते हैं, शब्द-शब्द!

मैं क्या लिखूं! फिर खुद लिखती है लेखनी...

समुंदर की अधूरी कथाएं,
लहरें, तट तक कहने को आएं,
तब टूटते हैं, शब्दों के स्तम्भ,
बिखर जाते हैं, शब्द-शब्द!

मैं क्या लिखूं! फिर खुद लिखती है लेखनी...

Thursday, 8 November 2018

स्नेह तुम्हारा

बरस बीते, बीते अनगिनत पल कितने ही तेरे संग,
सदियाँ बीती, मौसम बदले........
अनदेखा सा कुछ अनवरत पाया है तुमसे,
हाँ ! बस ! वो स्नेह ही है.....
बदला नही वो आज भी, बस बदला है स्नेह का रंग।

कभी चेहरे की शिकन से झलकता,
कभी नैनों की कोर से छलकता,
कभी मन की तड़प और संताप बन उभरता,
सुख में हँसी, दुख में विलाप करता,
मौसम बदले! पौध स्नेह का सदैव ही दिखा इक रंग ।

छूकर या फिर दूर ही रहकर!
अन्तर्मन के घेरे में मूक सायों सी सिमटकर,
हवाओं में इक एहसास सा बिखरकर,
साँसों मे खुश्बू सी बन कर,
स्नेह का आँचल लिए, सदा ही दिखती हो तुम संग।

अमूल्य, अनमोल है यह स्नेह तेरा,
दूँ तुझको मैं बदले में क्या? 
सब कुछ है तेरा, मेरा कुछ भी ना अब मेरा,
समर्पित कण-कण हूँ मैं तुझको,
भाव समर्पण के ना बदलेंगे, बदलते मौसम के संग।

सौदा है यह, नेह के लेन-देन का,
तुम नेह निभाने में हो माहिर,
स्नेह लुटा, वृक्ष विशाल बने तुम नेह का,
देती है घनी छाया जो हरपल,
अक्षुण्ह स्नेह ये तेरा, कभी बदले ना मौसम के संग।

बुझते दीप

कल ही दिवाली थी...
कल ही, जलते दीयों को बुझते देखा मैनें....

कल ही दिवाली थी...
शामत, अंधेरों की, आनेवाली थी!
कुछ दीप जले, प्रण लेकर,
रौशन हुए, कुछ क्षण वो भभककर,
फिर, उनको बुझता देखा मैनें,
अंधेरी रातों को,
फिर से गहराते देखा मैनै...

कल ही दिवाली थी...
कल ही, जलते दीयों को बुझते देखा मैनें....

कमी, आभा की थी?
या, गर्भ में दीप के, आशा कम थी?
बुझे दीप, यही प्रश्न देकर,
निरुत्तर था मैं, उन प्रश्नों को लेकर!
दृढ-स॔कल्प किया फिर उसने,
दीप्त दीपों को,
तिमिर से लड़ते देखा मैनें....

कल ही दिवाली थी...
कल ही, जलते दीयों को बुझते देखा मैनें....

अलख, कहाँ थी....
इक-इक दीप में, विश्वास कहाँ थी!
संकल्प के कुछ कण लेकर,
भीष्म-प्रण लिए, बिना जलकर,
इक जंग लड़ते देखा मैनें,
तम की रातों को,
फिर से गहराते देखा मैनै...

कल ही दिवाली थी...
कल ही, जलते दीयों को बुझते देखा मैनें....

Tuesday, 6 November 2018

मेरी दिवाली

दीपक, इक मै भी चाहता हूँ जलाना....

वो नन्हा जीवन,
क्यूँ पल रहा है बेसहारा,
अंधेरों से हारा,
फुटपाथ पर फिरता मारा....

सारे प्रश्नों के
अंतहीन घेरो से बाहर निकल,
बस चाहता हूँ सोचना,

दीपक, इक मै भी चाहता हूँ जलाना....

वो वृहत आयाम!
क्यूँ अंधेरों में है समाया,
जीत कर मन,
अनंत नभ ही वो कहलाया....

सारे आकाश के
अँधेरों को अपनी पलकों पर,
बस चाहता हूँ तोलना,

दीपक, इक मै भी चाहता हूँ जलाना....