Saturday 22 February 2020

लहर! नहीं इक जीवन!

वेदना ही है जीवन, व्यथा किसने ना सहा!
क्यूँ भागते हो जीवन से?
लहरों को, कब मैंने जीवन कहा?

इक ज्वार, नहीं इक जीवन,
उठते हैं इक क्षण, फिर करते हैं गमन,
जैसे, अनुभव हीन कोई जन,
बोध नहीं, कुछ भान नहीं,
लवणित पीड़ा की, पहचान नहीं, 
सागर है, सुनसान नहीं,
छिड़के, मन की छालों पर लवण,
टिसते, बहते ये घन,
हलचल है, श्मशान नहीं,
रुकना होता है, थम जाना होता है,
भावों से, वेदना को, 
टकराना होता है,
तिल-तिल, जल-कर, जी जाना होता है!
जीवन, तब बन पाता है!

वेदना ही है जीवन, व्यथा किसने ना सहा!
क्यूँ भागते हो जीवन से?
लहरों को, कब मैंने जीवन कहा?

रह-रह, आहें भरता सागर,
इक-इक वेदना, बन उठता इक लहर,
मन के पीड़, सुनाता रो कर,
बदहवास सी, हर लहर,
पर, ये जीवन, बस, पीड़ नहीं,
सरिता है, नीर नहीं,
डाले, पांवों की, छालों पर मरहम,
रोककर, नैनों में घन,
यूँ चलना है, आसान नहीं,
रहकर अवसादों में, हँसना होता है,
हाला के, प्यालों को,
पी जाना होता है,
डूब कर वेदना संग, जी जाना होता है!
जीवन, फिर कहलाता है!

वेदना ही है जीवन, व्यथा किसने ना सहा!
क्यूँ भागते हो जीवन से?
लहरों को, कब मैंने जीवन कहा?

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday 21 February 2020

हे शिव!

हे शिव!

अर्पित है, दुविधा मेरी,
समर्पित, मन की शंका मेरी,
बस खुलवा दे, मेरे भ्रम की गठरी,
उलझन, सुलझ जाए थोड़ी,
जोड़ लूँ, मैं ये अँजुरी!

हे शिव!

क्या, सचमुच भगवान,
मांगते हैं, दूध-दही पकवान,
होने को प्रसन्न, चाहते हैं द्रव्य-दान,
लेते हैं, जीवों का बलिदान,
हूँ भ्रमित, मैं अन्जान!

हे शिव!

भीतर, पूजते वो पत्थर,
बाहर, रौंदते जो मानव स्वर,
निकलूं कैसे, मैं इस भ्रम से बाहर,
पूजा की, उन सीढ़ियों पर,
क्यूँ विलखते हैं ईश्वर?

हे शिव!

जीवन ये, स्वार्थ-प्रवण,
मानव ही, मानव के दुश्मन,
शायद, हतप्रभ चुप हैं यूँ भगवन,
घनेरे कितने, स्वार्थ के वन,
भटक रहा, मानव मन!

हे शिव!

पाप-पुण्य, सी दुनियाँ,
ये, सत्य-असत्य की गलियाँ,
धर्म-अधर्म की, तैरती कश्तियाँ,
बहती, नफरत की आँधियां,
भ्रम, हवाओं में यहाँ!

हे शिव!

अर्पित है, दुविधा मेरी,
समर्पित, मन की शंका मेरी,
बस खुलवा दे, मेरे भ्रम की गठरी,
उलझन, सुलझ जाए थोड़ी,
जोड़ लूँ, मैं ये अँजुरी!

हे शिव!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday 20 February 2020

आर-पार

यूँ हर घड़ी, मैं, किसकी बात करूँ!
क्यूँ मैं, उसी की बात करूँ?

हूँ मैं इस पार, या हूँ मैं उस पार,
जैसे दर्पण क़ोई, करे खुद का ही दीदार,
क्यूँ ना, मैं इन्कार करूँ!

यूँ हर घड़ी, मैं, उसी की बात करूँ!

यूँ बूँद कोई, कभी छलक आए,
चले पवन कोई, बहा दूर कहीं ले जाए,
बहकी, कोई बात करूँ!

यूँ हर घड़ी, मैं, उसी की बात करूँ!

हुई ओझल, कहीं तस्वीर कोई,
रंग ख्यालों में लिए, बनाऊं ताबीर कोई,
अजनबी, कोई रंग भरूँ!

यूँ हर घड़ी, मैं, उसी की बात करूँ!

निहारूँ राह वही, यूँ अपलक,
वो सूना सा फलक, कोई ना दूर तलक,
यूँ बेखुदी में, जाम भरूँ!

यूँ हर घड़ी, मैं, उसी की बात करूँ!

हूँ मैं इस पार, या हूँ मैं उस पार,
है परछाईं कोई, या वो कल्पना साकार,
यूँ मैं क्यूँ, इंतजार करूँ!

यूँ हर घड़ी, मैं, उसी की बात करूँ!
क्यूँ मैं, उसी की बात करूँ?

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday 18 February 2020

चुप हो क्यूँ?

लो डुबकियाँ,
हो रहा बेजार, ये मझधार है!

जीवन, जिन्दगी में खो रहा कहीं,
मानव, आदमी में सो रहा कहीं, 
फर्क, भेड़िये और इन्सान में अब है कहाँ?
कहीं, श्मसान में गुम है ये जहां, 
बिलखती माँ, लुट चुकी है बेटियाँ, 
हैरान हूँ, अब तक हैवान जिन्दा हैं यहाँ!
अट्टहास करते हैं वो!
तुम चुप हो क्यूँ?

लो चुटकियाँ, 
हो रहा बेकार, नव-श्रृंगार है!

सत्य, कंदराओं में खोया है कहीं,
असत्य, यूँ प्रभावी होता नही!
फर्क, अंधेरों और उजालों में अब है कहाँ?
जंगलों में, दीप जलते हैं कहाँ,
सुलगती आग है, उमरता है धुआँ,
जिन्दा जान, तड़पते जल जाते हैं यहाँ!
तमाशा, देखते हैं वो!
तुम चुप हो क्यूँ?

लो फिरकियाँ, 
हो रहा बेजार, ये उपहार है!

भँवर, इन नदियों में उठते हैं यूँ ही,
लहर, समुन्दरों में यूँ डूबते नहीं,
फर्क, तेज अंधरो के, उठने से पड़ते कहाँ!
इक क्षण, झुक जाती हैं शाखें,
अगले ही क्षण, उठ खड़ी होती यहाँ,
निस्तेज होकर, गुजर जाती हैं आँधियां!
सम्हल ही जाते हैं वो!
तुम चुप हो क्यूँ?

लो डुबकियाँ,
हो रहा बेजार, ये मझधार है!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 16 February 2020

रचनाओं की विधा

जीते हैं, शायद वे कुंठाओं में,
या फिर सरस्वती, अवकुंठित हैं उनमें,
यूँ ही वाणी, अमर्यादित न होती,
यूँ अहम, प्रभावी न होते!

घोल कर, अपनी बातों में अहम,
कहते हैं वो, करते गर्जन, 
गर हो आपकी, कोई विधा-प्रकाशन,
चाहते हैं, पढ़ना हम-
- कुंडलियाँ, दोहा, रोला, सवैया,
- चौपाई, सायली, लावणी, धनाकरी, 
- मत्तगयंद, कवित्त, पंच चामर!

विद्या से परे, ना कोई विधा,
सुंदर से सुंदरतम, होती हर इक विधा,
यूँ ही ये विधाएं, प्लावित न होती,
यूँ कवि, चारण न बनते!

हर रचना, बुनती इक भाव,
तुलसी ने, कब लिखी गजल, लावणी,
दिनकर ने, कब लिखी कव्वाली,
यूँ रचना, प्रखर ना होते!

मेरी साधारण सी, रचनाएँ,
मन की यमुना है, बस बहती ही जाए,
गंगा है, कल-कल करती जाए,
यूँ धारा बन, ना बहते!

मन भर जाए, लिखता हूँ, 
विधा जो कहलाए, भाव बुन लेता हूँ,
जिनको पढ़ना हो, वे पढते हैं,
यूँ ही,भावों में बहते हैं!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
 (सर्वाधिकार सुरक्षित)

भटकाव - इक होड़

होड़ लगी है, हर ओर लगी है...

कविताओं से दूर, इक धार बही है,
जितना जो दूर, पार वही है!
भटकावे का, द्वार यही है,
लेकिन, कविताओं को है बहना,
पाँच सात पाँच, भी गिनना,
क्यूँ बंधकर बहना!
बंधने की, इक शोर सी मची है!

होड़ लगी है, हर ओर लगी है...

कहते हैं वो, यह कोई बिंब नही है,
मैं जो समझूँ, बिंब वही है!
भाव, इशारों में मत कहना,
बिंब ना बने, तो यूँ, चुप ही रचना,
पाँच सात पाँच, का चक्कर,
फिर ना करना,
चारो ओर, यही शोर मची है!

होड़ लगी है, हर ओर लगी है...

समझाते हैं वे, नियम कह-कह कर,
समीक्षाओं के, हठीले भँवर!
खो जाते हैं, भाव हो मुखर,
बहते ये भाव, नियमबद्ध हो कैसे,
पाँच सात पाँच, ही कहना,
या चुप ही रहना!
हर ओर, इक शोर सी मची है!

होड़ लगी है, हर ओर लगी है...

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
 (सर्वाधिकार सुरक्षित)

अवधान

टूटा ना अवधान,
उस, काल कोठरी में,
कैद हो चला, एक दिन और!
बिन व्यवधान!

और एक दिन....

धारा है अवधान,
मौन धरा नें, 
पल, अनगिनत बह चला,
अनवरत, रात ढ़ली, दिवस ढ़ला,
हुआ, सांझ का अवसान,
बिन व्यवधान!

और एक दिन....

टूटा ना अवधान,
कालचक्र का,
कहीं सृजन, कहीं संहार,
कहीं लूटकर, किसी का श्रृंगार,
वक्त, हो चला अन्तर्धान,
बिन व्यवधान!

और एक दिन....

कैसा ये अवधान,
वही है धरा,
बदला, बस रूप जरा,
छाँव कहीं, कहीं बस धूप भरा,
क्षण-क्षण, हैं अ-समान,
बिन व्यवधान!

और एक दिन....

टूटा ना अवधान,
उस, काल कोठरी में,
कैद हो चला, एक दिन और!
बिन व्यवधान!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
 (सर्वाधिकार सुरक्षित)
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अवधान का अर्थ:
1. मन का योग । चित्त का लगाव । मनोयोग ।
2. चित की वृत्ति का निरोध करके उसे एक ओर लगाना । समाधि । 
3. ध्यान । सावधानी । चौकसी ।

Saturday 15 February 2020

अंबर तले

मेघाच्छादन
बिखरता सैलाब~
गीला क्षितिज!

डूबती नाव~
उफनाती सी धार
तैरते लोग!

डूबते जन~
क्षत विक्षत घर 
रुग्न वाहन!

डूबती शैय्या~
आहत परिजन
जन सैलाब!

रहे सोचते~
अब चलें या रुके
अंबर तले!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
 (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday 14 February 2020

कोशिशें

नीरवता! ठहरी क्यूँ है रात भर?
है कैसी, ये कोशिशें?

असंख्य तारे, टंके आसमां पर,
कर कोशिशें, लड़े अंधेरों से रात भर,
रहे जागते, पखेरू डाल पर,
उड़ना ही था, उन्हें हर हाल पर,
चाहे, करे कोशिशें,
अंधेरे, रुकने की रात भर!

नीरवता! ठहरी क्यूँ है रात भर?
है कैसी, ये कोशिशें?

ठहर जा, दो पल, ऐ चाँद जरा,
अंधेरे हैं घने, तू लड़, कुछ और जरा,
भुक-भुक सितारों, संग खड़ा,
हो मंद भले, तेरे दामन की रौशनी,
पर, तू है चाँदनी,
कोशिशें, कर तू रात भर!

नीरवता! ठहरी क्यूँ है रात भर?
है कैसी, ये कोशिशें?

यूँ जारी हैं, हमारी भी कोशिशें,
जलाए हमने भी, उम्मीदों के दो दीये,
लेकिन भारी है, इक रात यही,
व्याप्त निशा, नीरवता ये डस रही,
बुझने, ये दीप लगी,
करती कोशिशें, रात भर!

नीरवता! ठहरी क्यूँ है रात भर?
है कैसी, ये कोशिशें?

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
 (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday 13 February 2020

विहग - झूलती डाली

झूलती डाली, उड़ते-चहकते विहग,
जैसे, प्रसंग कोई छिड़ा हो,
गहन सी, कोई बात हो,
या, विहग, बिन-बात ही भिड़ा हो,
उलझ कर, साथ में,
फुर्र-फुर्र, वो कहीं उड़ा हो!

झूलती डाली, उड़-उड़ आते विहग,
प्रासंगिक सी, वो बात हो,
शुरु, फिर आप्रवास हो,
या, वियोग ही, विहग का बड़ा हो,
तीर, लग कर कोई,
जोड़ा, विहग का, मरा हो!

झूलती डाली, दूर-दूर तकते विहग,
बहेरी, पास ही खड़ा हो,
प्रसंग, वो ही बड़ा हो,
प्रश्न-चिन्ह, मानवता पर, लगा हो,
स्वार्थी, बहेरी ने ही,
लघु-मन को, झकझोरा हो!

झूलती डाली, विरह में डूबे विहग,
प्रसंग, जीवन से बड़ा हो,
जंग, कोई छिड़ा हो,
प्रश्न-चिन्ह, अस्तित्व पर लगा हो,
उस चह-चहाहट में, 
दर्द ही, विहग का घुला हो!

झूलती डाली, उड़ते-चहकते विहग,
जैसे, प्रसंग कोई छिड़ा हो,
गहन सी, कोई बात हो,
या, विहग, बिन-बात ही भिड़ा हो,
उलझ कर, साथ में,
फुर्र-फुर्र, वो कहीं उड़ा हो!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)