वेदना ही है जीवन, व्यथा किसने ना सहा!
क्यूँ भागते हो जीवन से?
लहरों को, कब मैंने जीवन कहा?
इक ज्वार, नहीं इक जीवन,
उठते हैं इक क्षण, फिर करते हैं गमन,
जैसे, अनुभव हीन कोई जन,
बोध नहीं, कुछ भान नहीं,
लवणित पीड़ा की, पहचान नहीं,
सागर है, सुनसान नहीं,
छिड़के, मन की छालों पर लवण,
टिसते, बहते ये घन,
हलचल है, श्मशान नहीं,
रुकना होता है, थम जाना होता है,
भावों से, वेदना को,
टकराना होता है,
तिल-तिल, जल-कर, जी जाना होता है!
जीवन, तब बन पाता है!
वेदना ही है जीवन, व्यथा किसने ना सहा!
क्यूँ भागते हो जीवन से?
लहरों को, कब मैंने जीवन कहा?
रह-रह, आहें भरता सागर,
इक-इक वेदना, बन उठता इक लहर,
मन के पीड़, सुनाता रो कर,
बदहवास सी, हर लहर,
पर, ये जीवन, बस, पीड़ नहीं,
सरिता है, नीर नहीं,
डाले, पांवों की, छालों पर मरहम,
रोककर, नैनों में घन,
यूँ चलना है, आसान नहीं,
रहकर अवसादों में, हँसना होता है,
हाला के, प्यालों को,
पी जाना होता है,
डूब कर वेदना संग, जी जाना होता है!
जीवन, फिर कहलाता है!
वेदना ही है जीवन, व्यथा किसने ना सहा!
क्यूँ भागते हो जीवन से?
लहरों को, कब मैंने जीवन कहा?
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)