Sunday, 4 December 2022

छोर

इधर ही, उस राह का इक छोर है,
लिए जाए किधर, ये मोड़ है!

छोड़ आए, उधर ही, कितनी गलियां,
कितने सपने, छूटे उधर,
मन के मनके, टूटकर, बिखरे राह में,
अब, लौट भी न, पाएं उधर,
छूटा जिधर, वो डोर है!

लिए जाए किधर, ये मोड़ है!

शक्ल अंजान कितने, इस छोर पर,
हैं हादसे, हर मोड़ पर,
सिमटता हर आदमी अपने आप में,
डस रही, अपनी परछाइयां,
विरान कैसा, ये छोर है!

लिए जाए किधर, ये मोड़ है!

धूल-धुसरित हो चले, ये पांव सारे,
धूमिल से दोनों किनारे,
ढूंढता खुद की ही, पहचान राहों में,
थक कर, चूर-चूर ये बदन, 
करे हैरान, यह छोर है!

इधर ही, उस राह का इक छोर है,
लिए जाए किधर, ये मोड़ है!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 27 November 2022

सालगिरह - 29वां


उनको छू कर,
किनारों से, गुजर रही है ये उमर!

बहाव सारे, बन गए किनारे,
ठहराव में हमारे,
रुक गया, ये कहकशां,
बनकर रह-गुजर!

उनको छू कर,
किनारों से, गुजर रही है ये उमर!

रश्क करता, मुझ पे दर्पण,
भर के आलिंगन,
निहारकर, पल दो पल, 
यूं जाता है ठहर!

उनको छू कर,
किनारों से, गुजर रही है ये उमर!

जज्बात में, इक साथ वो,
अनकही बात वो,
लिख दूं, कैसे, सार वो,
यूं ही कागजों पर!

उनको छू कर,
किनारों से, गुजर रही है ये उमर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)
At Kolkata....


Saturday, 19 November 2022

जब-जब ढूंढ़ोगे


विश्रांतियों में, महसूस करोगे!
जब-जब ढूंढ़ोगे!

यूं तो, दो पल चैन कहां, लेने देगी,
यह जीवन, जां ही लेगी,
वन-वन, ये पतझड़ ही, ले जाएगी,
मरुवन सा, जीवन,
बिखरे पलों के रेत शिखर,
लख कर,
अंन्तःवन की,
विश्रांतियों में, महसूस करोगे!
जब-जब ढूंढ़ोगे!

ठहरा सा, गुजरा इक, वक्त भले हूं,
पर लम्हा, इक, जीवंत हूं,
पीछे मुड़कर देखो, तो राह अनंत हूं,
थकाएंगी, ये लम्हा,
पर, सहलाएंगी, वो लम्हा,
हर पग,
थक-थक कर,
विश्रांतियों में, महसूस करोगे!
जब-जब ढूंढ़ोगे!

यूं ना डूबो, उन अनंत रिक्तियों में,
झांको, उन विस्मृतियों में,
ले जाओ, खुद को उन्हीं स्मृतियों में,
वहीं, ठहरा हो कोई,
दो पलकें, यूं ही हों खोई,
जागी सी,
छू जाए शायद!
विश्रांतियों में, महसूस करोगे!
जब-जब ढूंढ़ोगे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday, 16 November 2022

झरोखा काम का


वही इक झरोखा...
मेरे काम का!

उभर आती है जो, कितनी सायों के संग,
कभी संदली, कभी गोधूलि,
रातें कभी, बूंदों से धुली,
कहीं झांकती, कली कोई अधखुली,
हर रंग, जिंदगी के नाम का!

वही इक झरोखा...
मेरे काम का!

समेट कर, सिलवटों में, वक्त की करवटें,
यूं लपेटे, कोहरों की चादरें,
वो तो, बस पुकारा करे,
झांकते वो उधर, लिए पलकें खुली,
वो ही सहारा, इक शाम का!

वही इक झरोखा...
मेरे काम का!

वो तो, कैद कर गया, बस परिदृश्य सारे,
बे-आस से वो, दोनों किनारे,
उन, रिक्तियों में पुकारे,
क्षणभंगुर क्षण ये, जिधर थी ढ़ली,
बिखरा, वो सागर जाम का!

वही इक झरोखा...
मेरे काम का!

पर, वो करता कहां अंत की परिकल्पना,
जीवन्त सी, उसकी साधना,
अलकों में, नई अल्पना,
नित, फलक के, नव-रंगों में ढ़ली,
परवाह कहां, उसे शाम का!

वही इक झरोखा...
मेरे काम का!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, 8 November 2022

यह क्षण


इस क्षण में, उस क्षण की बातें क्या करना!
इस क्षण ही जीना, इस क्षण ही मरना।

पीकर जीवन-गरल, ढ़ल गए वो कल,
लूट चले जो सुख चैन, बीत चुके वो पल,
गूंज उसी कल की, क्या सुनना?

इस क्षण में, उस क्षण की बातें क्या करना!

वो बीता क्षण, दे जाए ना भीगा जीवन,
मंद कहीं पर जाए ना, इस क्षण की गुंजन,
उन चिथड़ों को, फिर क्या सीना?

इस क्षण में, उस क्षण की बातें क्या करना!

विदा कर, उस पल को, जो गम ही दे,
अलविदा कर दे उन यादों को, जो दुख दे,
बीते उस पल में, अब क्या जीना?

इस क्षण में, उस क्षण की बातें क्या करना!

कितनी प्यारी सी, इस क्षण की कंपन,
सपनों की क्यारी सी, लगती यह गुलशन,
उन कांटों को, अब क्या चुनना?

इस क्षण में, उस क्षण की बातें क्या करना!
इस क्षण ही जीना, इस क्षण ही मरना।

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday, 7 November 2022

क्षणभंगुर


ऐ एकाकी मन, पाले क्यूं, उलझन!

पलकों में, बूटे उग आए थे,
शायद, मेरी ख्वाबों के, वो सरमाए थे!
और, नैन तले, छाए काले घन,
अंतः, मेघों सा गर्जन,
लिए अधीर मन!

ऐ एकाकी मन, पाले क्यूं, उलझन!

सोचे, अब, कैसे ये ख्वाब!
कैसा ये पागलपन, पाले क्यूं, उलझन!
टूट जाते, सावन में ही ये घन,
बिखर जाते हैं, तन,
क्यूं दीवानापन!

ऐ एकाकी मन, पाले क्यूं, उलझन!

क्षण-भंगुर, मेघों के साए,
क्षण भर ही, भाएंगी इनकी क्षणिकाएं,
मुड़ जाएंगे, जाने किस ओर,
ढूंढोगे, कल ये शोर,
फिरोगे, वन-वन!

ऐ एकाकी मन, पाले क्यूं, उलझन!

फिर से ये बूटे, ना उगने दो,
फिर, ख्वाबों के सरमाए, ना बनने दो,
नभ पर, घन आएं, बरस जाएं,
ना ही, ख्वाब दिखाएं,
ना ही अपनापन!

ऐ एकाकी मन, पाले क्यूं, उलझन!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 29 October 2022

मैं चाहूँ

मैं चाहूँ....

ह्रदय पर तेरे, कोई प्रीत न हो अंकित,
कहीं, मेरे सिवा,
और, कोई गीत न हो अंकित!
बस, सुनती रहो तुम,
और मैं गांऊँ!

मैं चाहूँ....

नैन पटल पर, तेरे, उभरे ना रंग कोई,
मैं ही, उभरूं,
क्षितिज के, सिंदूरी अलकों से,
उतरूं, तेरी पलकों में,
यूं ही, संवरूं!

मैं चाहूँ....

कोई दूजी ना हो, और, कहीं कल्पना,
इक, मेरे सिवा,
उभरे ना, सिंदूरी कोई अल्पना,
बस, सजती रहो तुम,
और, मैं देखूं!

मैं चाहूँ....

मध्य कहीं, रह लो तुम व्यस्त क्षणों में,
छू जाओ तन,
मंद सलिल बन, सांझी वनों में,
दे जाओ, इक एहसास,
मन, रंग लूं!

मैं चाहूँ....

तेरी खुशबू, ले आए मंद बयार कोई,
बस, मुझ तक,
रुक जाए, वो महकी पुरवाई,
यूं, मंत्रमुग्ध करो तुम,
मैं खो जाऊं!

मैं चाहूँ....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday, 24 October 2022

अतः शीघ्रता कर

रात भर, अंधियारों से लड़कर,
जरा सा, थक चला!
शीघ्रता कर, इक दीप और जला!

ताकि, दीप्त सा वो राह, प्रदीप्त रहे,
अंधियारा, संक्षिप्त रहे,
मुक्तकंठ पल हों, आशाओं के कल हों,
निराशा के क्षण, लुप्त रहें!

अतः शीघ्रता कर......

कदम डगे ना, रोभर उन, राहों पर,
तमस, हंसे ना तुझपर,
जलते से, नन्हें प्यालों में, संताप जले,
अधर-अधर, बस हास पले!

अतः शीघ्रता कर......

आलोकित कर, साधना का पथ,
तू साध जरा, यह रथ,
हों बाधा-विहीन, अग्रसर हों पग-पग,
मन-विहग, हर डाल मिले!

अतः शीघ्रता कर......

रात भर, अंधियारों से लड़कर,
जरा सा, थक चला!
शीघ्रता कर, इक दीप और जला!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 22 October 2022

ले चला कौन

बड़ा ही मौन, मन का वो भीनापन,
ले चला कौन!
वो, अपनत्व और अपनापन!

शायद, बरस चुके हैं, बादल!
बिखर चले हैं, घन,
इक शून्य सा है, अन्दर,
ले चला कौन,
उन बादलों से, वो भीगापन!

यूं, शब्द सारे, हो चले हैं गूंगे!
क्यूं, लबों को ढूंढें?
हैं पुकार सारे, बेअसर,
ले चला कौन,
मुखर शब्दों से, वो पैनापन!

बेनूर, बेरंग सी मेरी परछाईं,
संग, बची है, बस,
वे हंस रही मुँह फेरकर,
ले चला कौन,
इस परछाईं से, मेरी लगन!

अब कहां, आती है वो सदा!
रंग, नैनों से जुदा,
राह, खुद गए हैं मुकर,
ले चला कौन,
सदाओं से, वो दिवानापन!

बड़ा ही मौन, मन का वो भीनापन,
ले चला कौन!
वो, अपनत्व और अपनापन!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 15 October 2022

चुभते कांटे

अब अपने से लगते हैं वो चुभते कांटे...

हरेक अंतराल,
हर घड़ी, पूछते मेरा हाल,
दर्द भरे, वही सवाल,
बिन मलाल!

अब अपने से लगते हैं वो चुभते कांटे...

उनकी चुभन,
वही, अन्तहीन इक लगन,
हर पल, बिन थकन,
वही छुअन!

अब अपने से लगते हैं वो चुभते कांटे...

जो, वो न हो,
ये मौसम, ये बारिशें न हों,
सब्रो आलम तो हो,
हम न हों!

अब अपने से लगते हैं वो चुभते कांटे...

क्यूं, उन्हें बांटें,
मीठी, दर्द की ये सौगातें,
तन्हा डूबती ये रातें,
यूं क्यूं छांटें!

अब अपने से लगते हैं वो चुभते कांटे...

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)