Monday, 1 February 2016

याद तुम आए अरण्य में

याद तुम आए अरण्य में.....बार-बार, हरबार।

मयूर ने जब-जब पंख फैलाए,
नृत्य क्रीड़ा कर संगिनी को रिझाए,
अरण्य में तुम याद आए, याद तुम आए!

मयुरी दूर खड़ी इठलाए,
भाव भंगिमा कर करतब दिखलाए,
तुम याद आए तब अरण्य मे, तुम याद आए!

शावक हिरण पक्षी मदमाए,
कचनार कली के मुखमंडल खिल आए,
बरबस अरण्य में तुम याद आए, याद तुम आए!

खिली धूप फिर रंग बिखराए,
कलकल करती झरणों ने राग सुनाए,
याद तुम आए अरण्य में, बार-बार तुम याद आए।

अरण्य भ्रमण

शुकून कितना इस अरण्य में,
विशाल घने वृक्ष घास झुरमुट मे,
अरण्य के मौन एकाकीपन में,
अन्तस्थ मंडराते कोलाहल में।

विचरते मयुर स्वच्छंद कलरव कर,
नर नृत्य भंगिमा करते पंख फैलाकर,
सम्मोहित मादा मयुर हुए जातीं,
दृश्य अति मनभावन ये दिखलातीं।

साँभर हिरनों नें मूक यूँ साधा है,
जैसे ईश्वर साधना मे खुद को बांधा है,
निःस्वर तकते फलक जमी पर,
चंचल हो उठते सुन घनघोर स्वर।

विशालकाय गज छुपा झुरमुट मे,
ताकते इधर उधर दूर गगन मे,
घोर चिंघार करता फिर अरन्य मे,
लीन बसंत ऋतु की स्वागत मे।

गैंडों की अपनी ही कथा है,
वर्चस्व किसकी हो यही व्यथा है,
लहुलुहान हुए लड़कर आपस में,
अरण्य निःस्तब्ध देखता कोलाहल में।

गीत कहीं गाते विहगझुंड,
स्वर लहरी में लहराते पशुझुंड,
विशाल वृक्ष झूम-झूम लहराते,
एकाकी मन मृदंग ताल छेड़ जाते।

(At Jaldhapara National Park, Madarihat WB on 31.01.2016

Saturday, 30 January 2016

होली

आयो होली रंग अति सुभावन, 
रंग डालूँ जीवन प्रीतम के संग,
राग विहाग गाऊँ चित्त-भावन।

विविध रंग मोहक मनभावन,
डारुँ मुख पे शोभे अतिरंजन,
नयन अभिराम अतिसुहावन।

रत-चुनरी रंग डारूँ सजनी के,
डारूँ रंग मनभावन जीवन के,
मुखमंडल मुखरित सजनी के।

चाहुँ नित फागुन अति-रंजित,
सजनी संग जीवन रंग-रंजित,
धानी चुनर हृदय अभिरंजित।

Friday, 29 January 2016

नेह निमंत्रण

हे प्रिय, तुम मेरे हृदय का नेह निमंत्रण ले लो!

मेरा हृदय ले लो तुम प्रीत मुझे दे दो,
स्वप्नमय नैनों में मुग्ध छवि सी बसो,
स्मृति पलकों के चिर सुख तुम बनो।

हे प्रिय, तुम मेरा प्रीत निवेदन सुन लो!

मैं पाँवो की तेरे लय गति बन जाऊँ,
प्राणों मे तुझको भर गीत बन गाऊँ
तेरी चंचल नैनों का नींद बन जाऊँ।

हे प्रिय, तुम नैन किरण आमंत्रण सुन लो!

तूम जीवन की नित उषा सम उतरो,
मेरी परछाई बन रजनी सम निखरो,
चिर जागृति की तू स्वप्न सम सँवरो।

हे प्रिय, तुम अधरों का गीत तो सुन लो!

मैं सृष्टि प्रलय तलक तेरा संग निभाऊँ,
तेरी अधरों का अमृत पीकर इठलाऊँ,
तुझ संग सृष्टि वीणा का राग दुहराऊँ।

हे प्रिय, मेरे भावुक हृदय का नेह निमंत्रण स्वीकारो!

ईश्वर विनती

हे ईश्वर, मेरी इतनी अभिलाषा पूरित कर!
हे ईश्वर, बस विनती तू मेरी सुन ले!

स्वर्गिक स्पर्शो का मै अनुरागी,
हर्ष विमर्शों का मैं प्रेमी,
मधुर स्मृतियों की क्षण का मैं याचक।

हे ईश्वर, बस इतनी चाह मेरी पूरी कर!

उज्जवल क्षण का अभिलाषी,
निश्चल अंतर्हृदय का वासी,
महत् कर्म मधुरगंध का मैं याचक।

हे ईश्वर, बस मेरी वीणा को तू स्वर दे!

चमकीले आडंबर का बैरागी,
नैसर्गिक धन का मैं प्रेमी,
अंतर के स्वर वीणा का मैं वादक।

हे ईश्वर, बस विनती तू मेरी सुन ले!
हे ईश्वर, बस मेरी इतनी अभिलाषा पूरित कर!

मधुर स्मृति स्पर्श अनुराग

मधुर स्मृति स्पर्श अनुराग छू जाते अंतर के स्वर!

मैं प्रेमी जीवन के स्वर्गिक स्पर्शो का, 
मै अनुरागी जीवन के हर्ष विमर्शों का,
मैं प्रेमी विद्युत सम मधुर स्मृतियों का।

शीतल उज्जवल अनुराग छू जाते अंतर के स्वर!

उज्जवलता दूँ मैं जीवन भर जलकर,
निश्चल बस जाऊँ हृदय संग चलकर,
अंबर की धारा से उतर आऊँ भू पर।

महत् कर्म मधुरगंध छू जाते अंतर के स्वर!

उच्च उड़ान भर लूँ मैं महत् कर्म कर,
त्याग दूँ जीवन के चमकीले आडंबर,
पी जाऊँ मधुरगंध साँसों में घोल कर।

मधुर स्मृति स्पर्श अनुराग छू जाते अंतर के स्वर!

निःस्वार्थ

चिलचिलाती सी धूप में,
निहारता किसी छाँव की ओर,
देख विशाल एक वटवृक्ष,
बढ पड़े कदम उस ओर।

विश्राम कुछ क्षण का मिला,
मिली चैन की छाँव भी,
कुछ वाट वटोही मिले,
हुई कुछ मन की बात भी।

मंद हवा के चंद झौंके मिले,
कांत हृदयस्थल हुआ,
कुछ अनोखे भाव जगे,
प्रश्न अनेंकाें फिर मन में उठे।

विशाल वटवृक्ष महान कितना,
ताप धूप की खुद सहकर,
निःस्वार्थ छाँव पथिक को दे गया,
शीतल तन को कर मन हर ले गया।