Friday, 4 March 2016

जब जब तुम हँसती हो

राग नए नए बन जाते हैं,जब जब तुम हँसती हो,

राग मल्हार बज गए तेरे हँसने से,
गीत बादलों ने अब छेड़ा है पीछे से,
बूँदों की झमझम कर रही करताल,
घटाएँ नृत्य कर रही ऩभ में विकराल।

लावण्य चेहरे की बढ़ जाती है जब तुम हसती हो,,

निराली छवि निखरी है चाँदनी सी,
होठों पर खिल गई हजार कलियाँ भी,
चाँद भी देखो शरमा रहा सामने नभ में,
तारों की बारात चल प़ड़ी आपके साथ में।

मोहक जीवन हो जाता है जब जब तुम हसती हो,

इक इक हँसी आपकी मरहम सी,
घाव हजार दुखों का जीवन के ये भर देती,
घायल चातक मैं आपके चितवन का,
आपकी मुस्कुराहट के मरहम का मैं रोगी।

तेरे सुर मे कोयल गाती है, जब जब तुम हसती हो।

राग ये कैसी छिड़ गई हँसने से आपके,
कूक कोयल की भूली है गीतों में आपके,
इस सुर की बहार फैली है अब चारो ओर,
मैं आपके गीतों का प्रेमी, है मेरा मन विभोर।

राग नए नए बन जाते हैं,जब जब तुम हँसती हो।

साऱांश तुम हो उपलब्धियों की

कहो तो, सारांश तुम ही हो जीवन के उपलब्धियों की !

तुम सार हो चिर सुख के लम्हों की,
तुम से ही प्रेरणा जीवन में कुछ करने की,
तुम विभूषित अनुभूति हो इस मन की,
मैं सह गया व्यथा तुम संग पूरे जीवन की।

कहो तो, सारांश तुम ही हो जीवन के उपलब्धियों की !

कायनात सपनों की तेरे ही दामन में,
डग लम्बे भरता हूँ तुम संग ही जीवन में,
आशा और विश्वास तुझसे ही मानस में,
जीवन का सार तुझसे ही इस मन प्रांगण में।

कहो तो, सारांश तुम ही हो जीवन के उपलब्धियों की !

इस मन वीणा की सुरमई संगीत तुम,
सप्तराग में गाती कोई मधुर सी गीत तुम,
उनमुक्त गगण के पंछी की आवाज तुम,
जीवन की अनुराग का संचित आधार तुम।

कहो तो, सारांश तुम ही हो जीवन के उपलब्धियों की !

तेरी साँसों की लय

जब जब तुमने सांसें ली थी आह मेरी भी निकली थी मन से!

तेरी साँसों की आती जाती लय में,
व्यथा उस जीवन की मैंने सुन ली थी,
व्यथित होता था मैं भी उस व्यथा से,
तब आह इस मन से निकल जाती थी।

विचलन इन साँसो की तेरी कह जाती थी मन की बातें सारी!

तुम मन को कितना भी बहलाओ,
रफ्तार इन साँसों की सब कह जाती है,
व्यथा की आग निकलती हैं साँसों से,
आह तब इस मन से निकल जाती है।

तेरी साँसों की लय का अंतरंग राही मैं, सुन लेता हूँ बातें सारी!

आह कैसे ना निकले इस मन से,
व्यथित जीवन मैं तेरी देख पाऊंगा कैसे,
ऐ सुख की घड़ियाँ तू जा मिल उनसे,
साँसों की लय मे तू बस जाना उनके।

बीते सारा जीवन तेरा, साँसों से सुख की लड़ियाँ गिनते गिनते!

साँसें तुम लेती रहना सुख चैन की,
आह मैं भी भर लूंगा तब अपने मन की,
तेरी खुशियों की लय पर जी लूंगा मैं,
व्यथा इस जीवन की तब ही कम होगी।

जब तक तुम सांसें लोगी जीवन में, आह भर लूंगा मैं भी मन से!

Thursday, 3 March 2016

ध्रुव सा यह स्मृति क्षण

ढ़लता सांध्य गगन सा जीवन!

क्षितिज सुधि स्वप्न रँगीले घन,
भीनी सांध्य का सुनहला पन,
संध्या का नभ से मूक मिलन,
यह अश्रुमती हँसती चितवन!

भर लाता ये सासों का समीर,
जग से स्मृति के सुगन्ध धीर,
सुरभित  हैं जीवन-मृत्यु  तीर,
रोमों में पुलकित  कैरव-वन !

आदि-अन्त दोनों अब  मिलते,
रजनी दिन परिणय से खिलते,
आँसू हिम के सम कण ढ़लते,
ध्रुव सा है यह स्मृति का क्षण!

अकस्मात् ही

कुछ मन की खुशी, अकस्मात् मिली यूँ,
रेत भीग गई हो कहीं, रेगिस्तान में  ज्यूँ,
जैसे जून में जमकर बरसी है बारिश यूँ,
कौंध गया है मन जैसे ठंढ़ी फुहार में यूँ।

हठात् मिल जाता है जब मनचाहा कोई,
खुशी मिलन की तब हो जाती है दोगुनी,
अकस्मात् बिछड़े जब, मिल जाते कहीं,
जीने की चाहत तब, बढ़ जाती और भी।

बिजली कौंधती बारिश मे अकस्मात् ही,
बूंद बनती है मोती सीप में अकस्मात् ही,
आसमान मे छाते हैं बादल अकस्मात् ही,
दो दिल मिलते हैं जीवन में अकस्मात ही।

पल पल की ये खुशियाँ जीवन की निधि,
हर पल जीवन जीने की देती है ये शक्ति,
अकस्मात् गले किसी को लगा लो अभी,
मंत्र शायद खुश रहने का जीवन में यही।




Wednesday, 2 March 2016

गरीब होना क्या गुनाह?

कोई बताए! गुनाह है क्या गरीब होना भी?

चीथडों में लिपटा है इक गरीब,
क्या पाया है उसने भी नसीब ?
मिला उसको भी  हैै एक शरीर,
कहलाता वो भी है इक इंसान।

मानव श्रृंखला की वो इक कड़ी,
श्रृंखला ये उसके बिन पूरी नहीं,
नंगा वो,पर है अहमियत उसकी,
गरीब मर जाना उसकी नियति?

सोचता हूँ,क्या जीवन है ये भी?
संवेदना गुम कहाँ इन्सानों की ?
विसंगति कैसी! ये श्रृंखला की?
गुनाह है! क्या  गरीब होना भी?

सोंचे क्या संवेदनशील इन्सान हैं आप भी?

बेगुनाह का गुनाह

अब गुनाहों का फैसला तो विधाता ही करेगा,
क्या सही? क्या गलत? तय बस वही करेगा!
हम तो बस तुच्छ इंसान क्या हमको दिखेगा?

जरूरतों से आगे सोच इंसान की जाती नहीं,
पग-पग लेती परीक्षा यहाँ जरूरतें जीवन की,
फुर्सत किसको गलत सही निर्णय करने की,
गुनाह होते हैं यहाँ कई बेगुनाहों के हाथों ही।

आग पेट की बुझाने को कोई छीन रहा रोटी,
कोई तन ढकने को कपड़ा छीनता किसी की,
बद से भी बदतर है , हालात यहाँ जीवन की,
बेगुनाह वो जरूरतमंद गुनाहगार हालात की।

अब इस गुनाह का फैसला विधाता ही करेगा,
क्या सही? क्या गलत? तय अब वही करेगा!
हम तो बस तुच्छ इंसान क्या हमको दिखेगा?