Sunday, 3 December 2017

परिवेश

ख्वाहिशों में है विशेष, मेरा मनचाहा परिवेश....

जहाँ उड़ते हों, फिजाओं में भ्रमर,
उर में उपज आते हों, भाव उमड़कर,
बह जाते हों, आँखो से पिघलकर,
रोता हो मन, औरों के दु:ख में टूटकर.....
सुखद हो हवाएँ, सहज संवेदनशील परिवेश....

ख्वाहिशों में है विशेष, मेरा मनचाहा परिवेश....

जहाँ खुलते हों, प्रगति के अवसर,
मन में उपजते हो जहाँ, एक ही स्वर,
कूक जाते हों, कोयल के आस्वर,
गाता हो मन, औरों के सुख में रहकर......
प्रखर हो दिशाएँ, प्रबुद्ध प्रगतिशील परिवेश....

ख्वाहिशों में है विशेष, मेरा मनचाहा परिवेश....

जहाँ बहती हों, विचार गंगा बनकर,
विविध विचारधाराएं, चलती हों मिलकर,
रह जाते हों, हृदय हिचकोले लेकर,
खोता हो मन, अथाह सिन्धु में डूबकर.....
नौ-रस हों धाराएँ, खुला उन्नतशील परिवेश.....

ख्वाहिशों में है विशेष, मेरा मनचाहा परिवेश....

स्मरण

स्मरण फिर भी मुझे, सिर्फ तुम ही रहे हर क्षण में ......

मैं कहीं भी तो न था ....!
न ही, तुम्हारे संग किसी सिक्त क्षण में,
न ही, तुम्हारे रिक्त मन में,
न ही, तुम्हारे उजाड़ से सूनेपन में,
न ही, तुम्हारे व्यस्त जीवन में,
कहीं भी तो न था मैं तुम्हारे तन-बदन में ....

स्मरण फिर भी मुझे, सिर्फ तुम ही रहे हर क्षण में ......

मैं कहीं भी तो न था ....!
न ही, तुम्हारी बदन से आती हवाओं में,
न ही, तुम्हारी सदाओं में,
न ही, तुम्हारी जुल्फ सी घटाओं में,
न ही, तुम्हारी मोहक अदाओं में,
कहीं भी तो न था मैं तुम्हारी वफाओं में ....

स्मरण फिर भी मुझे, सिर्फ तुम ही रहे हर क्षण में ......

मैं कहीं भी तो न था ....!
न ही, तुम्हारे संग अगन के सात फेरों में, 
न ही, तुम्हारे मन के डेरों में,
न ही, तुम्हारे जीवन के थपेड़ों में,
न ही, तुम्हारे गम के अंधेरों में,
कहीं भी तो न था मैं तुम्हारे उम्र के घेरों में ....

स्मरण फिर भी मुझे, सिर्फ तुम ही रहे हर क्षण में ......

मैं कहीं भी तो न था ....!
न ही, तुम्हारे सुप्त विलुप्त भावना में, 
न ही, तुम्हारे कर कल्पना में,
न ही, तुम्हारे मन की आराधना में,
न ही, तुम्हारे किसी प्रार्थना में,
कहीं भी तो न था मैं तुम्हारे प्रस्तावना में ....

स्मरण फिर भी मुझे, सिर्फ तुम ही रहे हर क्षण में ......

मैं कहीं भी तो न था ....!
न ही, तुम्हारी बीतती किसी प्रतीक्षा में, 
न ही, तुम्हारी डूबती इक्षा में,
न ही, तुम्हारी परिधि की कक्षा में,
न ही, तुम्हारी समीक्षा में,
कहीं भी तो न था मैं तुम्हारी अग्निवीक्षा में ....

स्मरण फिर भी मुझे, सिर्फ तुम ही रहे हर क्षण में ......

Tuesday, 28 November 2017

मैं, बस मैं नहीं

मैं, बस इक मैं ही नहीं.....इक जीवन दर्पण हूँ.....!

मैं, बस इक मैं ही नहीं.........
इक रव हूँ, इक धुन हूँ,
हृदय हूँ, आलिंगन हूँ, इक स्पंदन हूँ,
गीत हूँ, गीतों का सरगम हूँ
गूंजता हूँ हवाओं में,
संगीत बन यादों में बस जाता हूँ,
गुनगुनाता हूँ मन में, यूँ मन को तड़पाता हूँ.....

मैं, बस इक मैं ही नहीं........
इक दिल हूँ, इक धड़कन हूँ,
भावुक हूँ कुछ, थोड़ा बह जाता हूँ,
बंधकर पीड़ा में रह जाता हूँ,
खो जाता हूँ खुद में,
औरों के गम में आहत हो जाता हूँ,
विलखता हूँ मन में, एकान्त जब होता हूँ.....

मैं, बस इक मैं ही नहीं.........
इक रोश हूँ, इक आक्रोश हूँ,
गर्म खून हूँ, जुल्म से उबल जाता हूँ,
चुभती बात कहाँ सह पाता हूँ,
विरुद्ध हूँ मैं दमन के,
खुली चुनौती देकर लड़ जाता हूँ,
कलपता हूँ मन में, प्रभावित मैं होता हूँ....

मैं, बस इक मैं ही नहीं.........
इक राह हूँ, इक प्रवाह हूँ,
कभी रुकता हूँ, कभी चल पड़ता हूँ,
जूझकर रोड़ों से गिर पड़ता हूँ,
समाहित हूँ मैं खुद में,
यूँ राह प्रशस्त कर बढ़ जाता हूँ,
छलकता हूँ मन में, यूँ बस संभल जाता हूँ.....

मैं, बस इक मैं ही नहीं.........
इक जीव हूँ, इक जीवन हूँ, 
कभी सही हूँ, तो कभी गलत भी हूँ,
खबर नहीं है की सत्यकाम हूँ,
सत्यापित हूँ मैं खुद में,
बस जीवन को जीता जाता हूँ,
इठलाता हूँ मन में, यूँ खुद को बहलाता हूँ....

मैं, बस इक मैं ही नहीं....इक जीवन दर्पण हूँ.....!

Sunday, 26 November 2017

24 बरस

दो युग बीत चुके, कुछ बीत चुके हम,
फिर बहार वही, वापस ले आया ये मौसम....

बीते है 24 बरस, बीत चुके है वो दिन,
यूँ जैसे झपकी हों ये पलकें,
मूँद गई हों ये आँखे, कुछ क्षण को,
उभरी हों, कुछ सुलझी अनसुलझी तस्वीरें,
वो सपने, है बेहद ही रंगीन!
फिर सपने वही, वापस ले आया ये मौसम....

कितनी ऋतुएँ, कितने ही मौसम बदले, 
भीगे पलकों के सावन बदले,
कब आई पतझड़, जाने कब गई,
अपलक नैनों में, इक तेरी है तस्वीर वही,
वो सादगी, है बेहद ही रंगीन!
फिर फागुन वही, वापस ले आया ये मौसम....

बाँकी है ये जीवन, अब कुछ पलक्षिण,
थोड़ी सी बीत चुकी हैं साँसें, 
एहसास रीत चुके हैं साँसों में कई,
बची साँसों में, है बस इक एहसास वही,
वो एहसास, है बेहद ही रंगीन!
फिर बसंत वही, वापस ले आया ये मौसम....

बीते है 24 बरस, कुछ बीते है हम,
फिर बहार वही, वापस ले आया ये मौसम....

Saturday, 25 November 2017

अनन्त प्रणयिनी

कलकल सी वो निर्झरणी,
चिर प्रेयसी, चिर अनुगामिणी,
दुखहरनी, सुखदायिनी, भूगामिणी,
मेरी अनन्त प्रणयिनी......

छमछम सी वो नृत्यकला,
चिर यौवन, चिर नवीन कला,
मोह आवरण सा अन्तर्मन में रमी,
मेरी अनन्त प्रणयिनी......

धवल सी वो चित्रकला,
नित नवीन, नित नवरंग ढ़ला,
अनन्त काल से, मन को रंग रही,
मेरी अनन्त प्रणयिनी......

निर्बाध सी वो जलधारा,
चिर पावन, नित चित हारा,
प्रणय की तृष्णा, तृप्त कर रही,
मेरी अनन्त प्रणयिनी......

प्रणय काल सीमा से परे,
हो प्रेयसी जन्म जन्मान्तर से,
निर्बोध कल्पना में निर्बाध बहती,
मेरी अनन्त प्रणयिनी......

अतृप्त तृष्णा अजन्मी सी,
तुम में ही समाहित है ये कही,
तृप्ति की इक कलकल निर्झरणी,
मेरी अनन्त प्रणयिनी......

(शादी की 24वीं वर्षगाँठ पर पत्नी को सप्रेम समर्पित) 

Thursday, 23 November 2017

अरुचिकर कथा

कोई अरुचिकर कथा,
अंतस्थ पल रही मन की व्यथा,
शब्दवाण तैयार सदा....
वेदना के आस्वर,
कहथा फिरता,
शब्दों में व्यथा की कथा?
पर क्युँ कोई चुभते तीर छुए,
क्युँ भाव विहीन बहे,
श्रृंगार विहीन सी ये कथा,
रोमांच विहीन, दिशाहीन कथा,
कौन सुने, क्युँ कोई  सुने?
इक व्यथित मन की अरुचिकर कथा!

किसी के कुछ कहने,
या किसी से कुछ कहने, या
इससे पहले कि
कोई मन की बात करे 
या फिर रस की बरसात करे, 
दिल के जज्बात 
लम्हातों मे आकर कोई भरे, 
खींच लेता वो शब्दवाण,
पिरो लेता बस
अपने शब्दों में अपनी ही कथा...
अपनी पीड़ा, अपनी व्यथा,
कौन सुने, क्युँ कोई  सुने?
इक व्यथित मन की अरुचिकर कथा!

सबकी अपनी पीड़ा,
अपनी-अपनी सबकी व्यथा,
पीड़ा की गठरी
सब के सर इक बोझ सा रखा,
कोई अपनी पीड़ा
जीह्वा मे भरकर
घुटने टेक,
सर के बल लेट,
शब्दों पर लादकर चल रहा,
कौन सुने, क्युँ कोई  सुने?
इक व्यथित मन की अरुचिकर कथा!

व्यथा की कथा रच-रच....
वाल्मीकि रामायण रच गए,
तुलसी रामचरितमानस,
वेदव्यास महाभारत,
और कृष्ण गीतोपदेश दे गए,
पढे कौन, क्युँ कोई पढे,
है कौन व्यथा से परे!
मैं शब्दों में बोझ भरूँ कैसे?
शब्दवाण बींधूँ कैसे,
एकाकी पलों में 
खुद से खुद कहता व्यथा की कथा!
कौन सुने, क्युँ कोई  सुने?
इक व्यथित मन की अरुचिकर कथा!

डोल गया मन

फिर क्या था, डोल गया, कुछ बोल गया ये मन.....

उफक पर
सर रखकर 
इठलाई रवि किरण,
झील में 
तैरते फाहों पर, 
आई रख कर चरण,
आह, उस सौन्दर्य का 
क्या करुँ वर्णन
पल भर को
मूँद गए मेरे मुग्ध नयन....

फिर क्या था, डोल गया, कुछ बोल गया ये मन.....

उफक पर
श्रृंगार कर गया कोई,
नैनों में काजल
मस्तक पर
लालिमा सी फैली
सिंदूरी रंग
उफक पर भर गया कोई,
रौशन मुख
पीत वस्त्र
चमकीले आभूषण
मन हर गए श्वेत वर्ण...

फिर क्या था, डोल गया, कुछ बोल गया ये मन.....

उफक पर
तैरते से तल पर
जैसे हो
तैरते से भ्रम
कौन जाने
जल में है कुंभ या
है कुंभ में जल,
घड़ा जल में 
या है जल घड़े में
असमंजस में
भ्रम की स्थिति में रहे हम...

फिर क्या था, डोल गया, कुछ बोल गया ये मन.....