रह-रह, कुछ उभरता है अन्दर,
शायद, तेरी ही कल्पनाओं का समुन्दर,
रह रह, उठता ज्वार,
सिमटती जाती, बन कर इक लहर,
हौले से कहती, पाँवों को छूकर,
एकाकी क्यूँ हो तुम!
अनुभूतियों का, ये कैसा सागर,
उन्मत्त किए जाती है, जो, आ-आ कर,
उभरती, ये संवेदनाएं,
यदा-कदा, पलकों पर उतर आएं,
बूँदों में ढ़ल, नैनों में कह जाए,
एकाकी क्यूँ हो तुम!
हो जैसे, लहरों पे सांझ किरण,
झूलती हों, पेड़ों पे, इक उन्मुक्त पवन,
हल्की सी, इक सिहरन,
अनुभूतियों के, गहराते से वो घन,
कह जाती है, छू कर मेरा मन,
एकाकी क्यूँ हो तुम!
रह-रह, कुछ सिमटता है अंदर,
शायद, ज्वार-भाटा की वो लौटती लहर,
चिल-चिलाती दोपहर,
रुपहला, सांझ का, बिखरा प्रांगण,
कह जाता है, रातों का आंगन,
एकाकी क्यूँ हो तुम!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
रह-रह, कुछ सिमटता है अंदर,
ReplyDeleteशायद, ज्वार-भाटा की वो लौटती लहर,
चिल-चिलाती दोपहर,
रुपहला, सांझ का, बिखरा प्रांगण,
कह जाता है, रातों का आंगन,
एकाकी क्यूँ हो तुम..…वाह अतिउत्तम
बहुत-बहुत धन्यवाद
Deleteआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" बुधवार 26 मई 2021 को साझा की गयी है.............. पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद
Deleteरह-रह, कुछ उभरता है अन्दर,
ReplyDeleteशायद, तेरी ही कल्पनाओं का समुन्दर,
रह रह, उठता ज्वार,
सिमटती जाती, बन कर इक लहर,
हौले से कहती, पाँवों को छूकर,
एकाकी क्यूँ हो तुम!..वाह सुंदर उत्कृष्ट रचना ।
बहुत-बहुत धन्यवाद
Deleteवाह।
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद
Deleteवाह बहुत सुंदर
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद
Deleteवाह बहुत खूब
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद
Deleteअनुभूतियाँ कहाँ एकाकी रहने देती हैं, हर पल घेरे रहती हैं।
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद
Deleteवाह!पुरुषोत्तम जी ,खूबसूरत सृजन ।
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद
Deleteये समंदर भी न जाने कितने रूप धर ज़िन्दगी को प्रभावित करता रहता है ।
ReplyDeleteखूबसूरत रचना ।
बहुत-बहुत धन्यवाद
Deleteशुभकामनाएं
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद
Deleteआदरणीय सर, बहुत ही भावपूर्ण रचना। एकाकी से बढ़ कर दूसरा अभिशाप नहीं । जब हमें हमारे अपनों और शुभ-चिंतकों का साहियोग प्राप्त होता है तो कठिन समय भी सरल लगता है और यदि हम एकाकी हैं तो सुखद समय भी सुख नहीं दे पाता है। इस सुंदर रचना के लिए हृदय से आभार व आपको प्रणाम ।
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद
Deleteबहुत सुन्दर सृजन
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद
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ReplyDeleteहो जैसे, लहरों पे सांझ किरण,
झूलती हों, पेड़ों पे, इक उन्मुक्त पवन,
हल्की सी, इक सिहरन,
अनुभूतियों के, गहराते से वो घन,
कह जाती है, छू कर मेरा मन,
एकाकी क्यूँ हो तुम!
बहुत ही भावपूर्ण रचना पुरुषोत्तम जी | एकाकीपन में बीते समय की यादों से उलझते मन की दास्तान !
बहुत-बहुत धन्यवाद
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